Sunday, June 19, 2011

एक बाप

सरहद पर एक आँख दुश्मन की ओर, और दूसरी नज़र जिसकी बटुए में लगी तस्वीर पर होती है
उस फौजी की दूर घर बैठी छोटी बिटिया, अपने बाप के इंतज़ार में कितना रोती है
कुछ ऐसे भी हैं बाप जिनके मकान न कभी घर बन पाते हैं
अदालत के चक्कर काट वो हर बार, अपने बच्चों से मिलने को नई अर्जी लगाते हैं
कुछ बेक़सूर सलाखों के पीछे कैद हो, अपने बच्चे को याद कर आंसू बहाते हैं
कुछ सडकों, बाजारों में, गाड़ियों,बमों और गोलियों से, मार डाले जाते हैं
रोज घर से दफ्तर और दफ्तर से घर की जंग में, वो फँस जाता है
पर घर में पाँव रखते ही एक नन्हे की किलकारी सुन, वो हंस जाता है
उसकी छड़ी के आगे परमाणु बम नतमस्तक हो जाते हैं
उसकी गुस्सैल आंखें देख, वेताल भी थर थर कांपने लग जाते हैं
उसकी दी हुई नसीहतें बड़ा होने के बाद ही समझ आतीं हैं
तब उस बाप की कही एक एक बात हमे बहुत याद आती हैं
ये वो हीरा है जिसकी कीमत उसे खोने के बाद ही पता चलती है
इसके जिन्दा रहने तक, हर घर से बुरी बला टलती है
दुनिया से लड़ झगड़ वो हर शाम अपने घर कुछ बटोर ले आता है
इस दुनिया के अन्दर बसी अपनी एक दुनिया को, खुशहाल बनाता है
उसके पसीने की महक मां के दूध बराबर चाहे हो या न हो
पर बाप बाप ही होता है, इसीलिए वो हम सबका बाप कहलाता है

Tuesday, June 14, 2011

जीवन

जीवन की नीयति ही ये है, जब हम किसी को खो देते हैं तो खुद को पा जाते हैं
जब तक सवालों के जवाब समझ आते हैं, तब तक नए सवाल पैदा हो जाते हैं
एक वक़्त ऐसा भी होता है कि सो कर वक़्त काटा जाता है
और फिर एक वक़्त ऐसा भी, जब वक़्त ही खुद सो जाता है
साथ चलती भीड़ धीरे धीरे छंटने लग जाती है
एक दिन बस खुद की ही परछाई साथ रह जाती है
उस दिन बुजुर्गों के कहे शब्द बार बार कानों में गूंजते हैं
अतीत की खामियों के जिन्न जिन्दा मुर्दे को सूंघते है
नफा नुक्सान क्या है, ये कभी किसी साहूकार से न जानना
ये न मैं सिखाऊंगा या कोई और , बस जिंदगी से ही जानना

Monday, June 13, 2011

तब और अब

तब किसी लिफ्ट पर नहीं बल्कि किसी पेड़ पर चढ़ा जाता था
किसी दोस्त के ही नहीं बल्कि किसी अजनबी को भी गुलाल मला जाता था
प्यास किसी नलके का चुल्लू में पानी पीकर ही बुझती थी
पडोसी के घर लीची और अपने आँगन में अम्बियाँ उगती थी
मां और पिताजी मोबाइल से नहीं, खिड़की से आवाज़ दे बुलाते थे
सुबह के बाहर खेलने गए बच्चे अपने आप शाम ढले घर आ जाते थे
ना टी वी था, ना मोबाईल, कुछ था तो वो था ढेर सारा वक़्त
स्माइली की बजाये मुस्कान या आंसुओं से होती थी भावनाएं व्यक्त
तब पिज्जा और बर्गर ना थे पर बंद समोसे से दिन काट लेते थे
दोस्तों के साथ चूरन, गट्टा और बुढिया के बाल बाँट लेते थे
दोस्त फ़ोन करके बता कर नहीं बल्कि जबरदस्ती घर आ धमकते थे
चेहरे मुल्तानी मिटटी लगा धोने के बाद चाँद माफिक चमकते थे
५० पैसे हर घंटे की किराये की साइकल ले नदी में नहाने जाया जाता था
तब मोटर गाड़ियां कम थी इसलिए जिस्मों को चलाया जाता था
कीचड मिटटी में सने हुए हाथ और पैर रहते थे पर बीमार ना बच्चे होते थे
बिस्तर में गिरते ही नींद आती थी तब लोग नींद की गोलियां खाकर ना सोते थे
तब इश्क दिल से और पढाई दिमाग से की जाती थी
गूगल, फेसबुक में जवाब और मेह्बूबायें ना ढूँढी जाती थी
आज सब कुछ तो है पर वक़्त की कमी पड़ गई है
मोबाईल है हाथ में पर इंसान से दूरियां बढ़ गयीं हैं
लज़ीज़ खाना है सामने पर हाजमा कमज़ोर पड़ चला है
देखो आज का इन्सां कितना आगे बढ़ चला है