Thursday, December 10, 2009

आस्तीन का यार

नश्तर घोंप गया मेरा अपना मेरे ही मज़ार पर
मैं तो समझा था इब्तेदा करने आया था
दरिया समंदर खूब पिए, आज अपने को ही पी रहा हूँ
आज खुद का क़त्ल कर में फिर एक बार जी रहा हूँ
वो मुझसे गले मिलता रहा और पीठ में खंजर बोता रहा
मैं समझता रहा की वो मेरी पीठ सहला रहा था
मैं समझता रहा की वो करीब आ रहा था
मुझे क्या पता था वो मुझसे दूर जा रहा था
गम ये नहीं, की दुआ सलाम भी न की
गम ये है की वो मेरा बनकर भी गीत किसी और का गा रहा था
एक एक ईंट जोड़ कर बनाया था जो घर
वो उसी में मेरा अपना बन सेंध लगा रहा था
मैं समझा हवा के आने का रास्ता बना रहा होगा
पर वो तो मेरी धूप चुरा रहा था
एक एक टुकड़ा जोड़ कर जैसा बनाया था हमने उसे
उसको हथियाने के लिए बोली कोई और लगा रहा था
हम तो ठहरे जिंदादिल बादशाह
पर वो महलों से हट बस्ती बसा रहा था
देखो कैसे यारों मेरा यार ही मुझे नीलाम करा रहा था

No comments: