Thursday, December 10, 2009

आस्तीन का यार

नश्तर घोंप गया मेरा अपना मेरे ही मज़ार पर
मैं तो समझा था इब्तेदा करने आया था
दरिया समंदर खूब पिए, आज अपने को ही पी रहा हूँ
आज खुद का क़त्ल कर में फिर एक बार जी रहा हूँ
वो मुझसे गले मिलता रहा और पीठ में खंजर बोता रहा
मैं समझता रहा की वो मेरी पीठ सहला रहा था
मैं समझता रहा की वो करीब आ रहा था
मुझे क्या पता था वो मुझसे दूर जा रहा था
गम ये नहीं, की दुआ सलाम भी न की
गम ये है की वो मेरा बनकर भी गीत किसी और का गा रहा था
एक एक ईंट जोड़ कर बनाया था जो घर
वो उसी में मेरा अपना बन सेंध लगा रहा था
मैं समझा हवा के आने का रास्ता बना रहा होगा
पर वो तो मेरी धूप चुरा रहा था
एक एक टुकड़ा जोड़ कर जैसा बनाया था हमने उसे
उसको हथियाने के लिए बोली कोई और लगा रहा था
हम तो ठहरे जिंदादिल बादशाह
पर वो महलों से हट बस्ती बसा रहा था
देखो कैसे यारों मेरा यार ही मुझे नीलाम करा रहा था

Saturday, November 28, 2009

शून्य की विडम्बना

शून्य की विडम्बना सिर्फ एक शुन्य ही समझ सकता है
हास्य का पात्र बन कर जीने की कला सिर्फ शुन्य ही जानता है
हर एक को अपने से नहीं जोड़ पाता, किसी से जुड़ता है तो दे जाता है
एक शून्य ही शून्य का दर्द जानता है
अपने ही महत्व को न जान पाता है, सब कुछ खोकर भी पा जाता है
एक शून्य की विडम्बना को सिर्फ एक शून्य ही जान पाता है

Friday, November 27, 2009

उस वक़्त

मेरा जूनून बोतल में बंद जिन्न नहीं
मेरा जूनून शराब की चुस्की के बाद निकली हुंकार नहीं
हज़ारों मोमबतियां जला लो, दुःख मना लो
में तो तभी जलूँगा जब ये सब बुझ जाएँगी
क्यूंकि किसी को तो जलना ही होगा सब बुझने के बाद
मैं कागज़ का चीता नहीं, दूर खड़ा लोमड हूँ
तुम्हारी बची हुई जूठन को भी तो किसी को खाना होगा
किसी को तो ये संसार बचाना होगा
तुम भाषण सुनो, काली पट्टियां पहनों
मैं बस तुम्हे देखता सुनता रहूँगा
मैं तब बोलूँगा जब तुम गूंगे बन जाओगे
क्यूंकि कोई तो आवाज़ उठाने वाला चाहिए होगा उस वक़्त
तुम आपदा का इंतज़ार करो
मैं तब तक कुछ दीवारें और मजबूत कर लूँ
क्यूंकि कोई तो बचा रहना चाहिए उस वक़्त.

Wednesday, October 28, 2009

त्रिवेणी

हम तो साँसे लेने को उतारू हैं
पर वो ही हमें छोड़ चली जाती हैं
क्या हमारे हिस्से में इतनी हवा भी नहीं ?

रोज गूंथता हूँ अपने सपने
पर बडे नमकीन हो चले हैं
मालूम न था आंसुओं में इतना नमक होता है

सोचा था दरिया ऊपर ओढूँ लूँगा
मगर वो भी छलक गया
सर्द हुआ मौसम बहुत
मुआ सूरज भी तो जम गया

राख छानता हूँ कुछ कंकड़ बीनने हैं
उसको मारने का कोई तो हथियार हो
हर तरफ आग लगी है
अब तो आँखों से भी छिड़कने को कुछ न बचा

आते हो और चले जाते हो
सांकल तो खडका दिया करो
थोडी ही सही, कुछ तो खामोशी टूटेगी

कल सूरज मेरे घर चंदा मांगने आया
बोला कुछ आग दे दो, बहुत तंगी है
मैने अपनी हिस्से का दिल तोड़ कर दे दिया
अब तेरे वाले हिस्से से ही जी रहा हूँ
देखना कल कमबख्त दुनिया फूँक डालेगा

सामने से आया और बगल से ही खामोश निकल गया
चलो इतना तो अदब दिखाया की अपनी खुशबू छोड़ गया
इन्ही सड़कों पर तो चले थे साथ हम कभी
अब ये सड़कें तंग हुई तो सड़कों का क्या कसूर ?

रात आई, मेरे चेहरे पर कुछ ठंडी बूँदें गिरा गई
जब आंख खुली तो गर्म आंसू थे गालों पर
कमबख्त को रोना भी ढंग से नहीं आता
भला आंसू भी कभी ठंडे होते हैं?

जिन्दा डूबा तो कैसे?
मुर्दा तैरा तो कैसे ?
क्या सांसें ही इतनी भारी थीं ?
मरते की आंखें अब बंद क्यूँ करते हो
क्या डरते हो मुर्दा दिमाग तक न देख ले ?

जिस्म छोड़ उड़ गया परिंदा
अब दूर से पास वाले को देखेगा
बडे राज खुलेंगे, एक नया षडयंत्र अब उगेगा
मैं तो उड़ गया हु फिजाओं में
तेरा चक्र तो अब भी चलेगा

दिल की धीमी आंच पर
चढा दिए हैं कुछ सपने
पक जायें तो उतार लेना
ध्यान रखना कि दिल जलता रहे !!!

अखबार सा ताबड़तोड़ पढ़ डाला मुझे
काश में एक मोटा उपन्यास होता
अब जो होगा वो उन्हें भी मालूम और मुझे भी.

हम वो हैं जो आंसू भी फूंक फूंक निकालते हैं
क्या करें उन्होने बनिया जो बना दिया
वरना एक वो आलम था
जब बारिश को देख हम हंसा करते थे

बारिश में बबूल उग आया है
पहले तो इतनी न चुभती थी
शायद उसने अपने उसूल बदल लिए होंगे
वरना पहले तो बड़े अदब से बरसती थी

मिटटी कि गुल्लक लगता है भर गई
जिन सिक्कों को एक एक कर जमा किया
वो नोटों में सिमट जायेंगे
फिर कुछ गोताखोर गंगा में दुबकी लगायेंगे
फिर कुछ और सिक्के मेरे पास आ जायेंगे

धधकती कोलतारी सड़क मेरे पाँव का नाप ले गई,
या खुदा क्या अब जूते भी मेरे ही नाप के मारोगे?

Monday, October 26, 2009

संसार का सुनार

हर कोने में गम तलाशता हूँ
हाँ.. मैं गम तराशता हूँ
हर मैं में हम तलाशता हूँ
हाँ मैं इंसान तराशता हूँ
हर कांच में फौलाद ढूँढता हूँ
हर उधाड़ने वाले में बुनकर तलाशता हूँ
हर कोई उधेड़ने में लगा है
हर घर छेदने में लगा है
मैं संगीन नहीं, गुलाब तलाशता हूँ
हाँ मैं गम तराशता हूँ
हजारों दरिया पी गया मैं आज तक
समंदर बन खुद को निखारता हूँ
हाँ मैं गम तराशता हूँ

Wednesday, October 21, 2009

रास्तों की राह

इंसान क्या देखता है और क्या पाता है
अजीब विडंबना है, क्या देखूं और क्या पाऊं
यहाँ तो हर बाशिंदे में यमराज ही नज़र आता है
हर कोई काले भैसे पर सवार है
किसी के हाथ भाला तो किसी के पास कटार है
फूल जो लिए फिरे, कहाँ मिलेगा वो
वो तो कहीं अपनी ही दुनिया में खुशगवार है
मन के मनके दोबारा जपने होंगे
कुछ सपने दोबारा बुनने होंगे
राहें कुछ और बदलनी होंगी
वरना खुद को ही राह बनना होगा
यही एक रास्ता है, जिससे न मेरा वास्ता है

Tuesday, October 20, 2009

बिटिया सी जिंदगी

आज मैं खुद ही अपने बोझ से दब गया
सोखने में इतना मशगूल रहा की निचोड़ना भूल गया
आज जिंदगी निचोडी तो पाया मैं तो अब खाली हूँ
अब क्या सोखुं जिंदगी ये तो बता
तेरा असली रूप तो देख लिया अब कुछ और तो दिखा?
बड़ी मदारी की पोटली लिए फिरती है
हिम्मत है तो मुझे हंसा के दिखा
मैं तो संत हूँ, चिलम पी सो जाऊंगा
तुझे जगाने जिंदगी ये बता कौन आयेगा?
तूने अपने को मुझे दिया तो क्या एहसान किया?
जा दफा हो मैने फिर भी तुझे माफ़ किया
गर मुझे पता होता तू ये गुल खिलाएगी
मेरे शरीर से जोंक सी चिपक जायेगी
तो मैं छड़ी से तेरी खबर लेता, कुछ बड़ी सजा देता
मगर बाप हूँ तेरा, बिटिया को न मारूंगा
तूने तो दुःख दिए मगर मैं सुख दे तुझे संवारुंगा

झूठा प्रचंड

उम्मीद की डोर पकडे चलो
सपनो को जकडे चलो
मन भारी हो तो बाँट बना कुछ दुःख तोल लो
किसी का कुछ कहा सुनो और किसी से कुछ बोल लो
हर दिन एक अंग मारता है तुम्हारा
उस अंग के मरने से पहले उसकी पोटली भी खोल लो
सपने पूरे हों या रह जायें अधूरे
इस फ़िक्र को छोड़ साधू की मैली चादर ओड लो
पानी है, बहेगा, आंसू हैं, बहेंगे
बस उनकी दिशा किसी और की बजाय अपनी और मोड़ लो
तुम प्रचंड हो, तुम अखंड हो
चाहे झूठ ही सही, इस विचार को अपने से जोड़ लो

वक़्त की जड़

रोज रोज यादें निचोड़ता हूँ
हर देखे हुए सपने की धूल हटाता हूँ
कभी उन यादों के बाल बहाता, और कभी उन्हे सहलाता हूँ
बच्चे की तरह उन्हे लोरी सुला खुद उनमें सो जाता हूँ
मन की बावली से प्यास नहीं बुझती, तो कुछ आंसू पी लेता हूँ
तेरी उन यादों की अंगुलियाँ पकडे कुछ कदम और चल लेता हूँ
बड़ी शातिर दुनिया है, सुना है साये भी चुरा लेती है
इसीलिए तुझे मन में लिए घूमता हूँ, और सांकल कस देता हूँ
वक़्त और मन बड़े भारी है, इसीलिए कई बार हांफ सा जाता हूँ
कुछ साँसे ज्यादा जिंदगी से उधार मांग आता हूँ
वक़्त का क्या है, उसे तो काटना ही होगा
इसीलिए उसे और बड़ा करने को उसकी जड़ में पानी दे आता हूँ

Saturday, October 17, 2009

दुवाएं

हम तो वो राजा हैं जो तेरी बारात में भी नाचें गायेंगे
खुद पीयेंगे अश्क मगर औरों को जाम पिलायेंगे
हमारी अर्थी को तुम कन्धा दो या न दो
तुम्हारी डोली को हम जरूर कन्धा लगायेंगे
हम काफिर नहीं, जो जहर खा लेंगे
हजारों जहर हमारे अन्दर ही दफ़न हैं, हम कहाँ मर पायेंगे?
तुम्हारी शादी के दिन अगर शेहनाई जोर से बजे तो हैरान न होना
अपनी सारी सांसे उस दिन हम शेहनाई में फूँक उसे बजायेंगे
गर्क से बने गर्क में पले और गर्क में ही मर जायेंगे
अपने हिस्से की जन्नत की वसीयत तेरे नाम कर जायेंगे
तेरी मोह्हबत तो बहुत खूब रही
हम तो तेरे दिए दर्दों को भी तेरी मोहब्बत समझ
तुझे और दुवाएं दे जायेंगे

Sunday, September 27, 2009

दशहरा

रावण राम जलाये रे भैया , जनता शोर मचाये
रामलीला का हनुमान उछलेकूदे, सब पर गदा घुमाये
कोई तीर कमान लगाये
कोई तलवार तानता आये
कोई बापू जी की गोदी से बैठा हुंकार लगाये
चाट पकोड़ी धमाचोकडी डम डम बाजे गायें
कहीं भागता बन्दर तो कहीं मच्छर तान सुनाये
राम जी की आई सवारी लक्ष्मण आँख दिखाए
काले पीले राक्षस देखो सरपट भागे जायें
पीछे पीछे वानर उनके घूंसे लात जमाएं
अभी फुंकेगा रावण भैया, चलो दशहरा मनाएं
रावण की अब लगेगी लंका चलो उत्पात मचाएं

Saturday, September 26, 2009

चिता की लकडी

छोटा सा बीज बोया था एक दिन
पहले पौधा बना फिर पेड़
आज सालों बाद उसे काट रहा हूँ
क्योंकि तेरी याद मुझे रोज जलाती रही
पर अब तो वो भी नहीं रही
इसलिए आज तो इस पेड़ को कटना ही होगा

Monday, September 21, 2009

मेरी अपनी रची कुछ जीवन की सूक्तियां -Part 4

जरा सोचो, ऊपर मरने जाने और नीचे जीते रहने के बीच, बस हमारी साँसे ही तो है!

जिस तरह फावडे का हर वार कुँवें को और गहरा बनाता है ठीक उसी तरह किस्मत का दिया हर घाव आपको एक बेहतर इंसान बनाता है

अगर ये धर्मगुरु और बाबा लोग सचमुच भगवान के दूत हैं तो ये धरती के बजाये स्वर्ग से राशन की खरीदारी क्यों नहीं करते ?

मैं तो तब मानू की कोई अमीर है जब वो चड्डी भी खालिस हीरे की बने पहने

ग्लेमर की दुनिया में बहुत से ऐसे व्यक्ति मिल जायेंगे जो शाम को तो क्लब में व्हिस्की पीते दिखाई देंगे और सुबह सब्जी मंडी में भाजी तरकारी खरीदते

कई बार लम्बी कार वाला चोकलेटी नहीं बल्कि वो मोटरसाईकिल वाला कल्लू बाजी मार ले जाता है, क्यूंकि इश्क दी गली विच नो एंट्री

इतना भी ऊपर मत उठो की लोग आपसे नज़रें न मिला पाएं, इतना भी नीचे न गिरो का आप किसी से नज़रें न मिला पाओ

मां बहिन और बूढी पत्नी के अलावा किसी महिला पर कभी विश्वास मत करना

हमें सारे बिल चोरों द्वारा ही भेजे गए लगते हैं

जब तक हम अपने ही अन्दर चल रहे युद्धों से नहीं जीतेंगे तो भला विश्व शांति कहाँ से लायेंगे?

सबसे पहले अपने घर को, फिर कालोनी को, फिर शहर को, फिर प्रदेश को समृद्ध करो, तभी जाकर देश समृद्ध कर पाओगे

जब घर जल रहा हो तो देश पर पानी छिड़क कर कुछ न होगा

हर कोई राजा बनने का ख्वाब तो देखता है पर सर पर मुनीम लिए बैठता है

एक तो मैं करेला ऊपर से नीमचढा, एक तो मैं शाकाहारी ऊपर से अकेला, मसलन दोनों ही प्रकार के मांस के नियमित सेवन से बिलकुल वंचित. घोर अन्याय प्रभु.

बारिश के मौसम की पीडा एक मेंडक और कुंवारे के अलावा कोई नहीं समझ सकता

शादी से पहली मिली वो शर्मो हया की मूरत शादी के बाद त्रिजटा सी क्यूँ हो जाती है?

वातानुकूलित वातावरण में बैठ कर जो युद्घ की योजनायें बनाते हैं, उनको बाहर आते ही लू लग जाती है

एक पिल्ला भी हमेशा पुचकारने वाले के आगे ही दुम हिलाता है-

पत्नी के नाखून उतने ही लम्बे होने चाहियें जितनी की मोटी आपकी खाल.

लडकियां लम्बे लड़कों को क्यूँ पसंद करती हैं? बकरा जितना बड़ा हो अच्छा ही है न

मेरी सासू माँ खाने की खरीदारी खुद करतीं हैं? जहर में मिलावट से उन्हे सख्त चिड है

मेरी पत्नी ने कल जहर खा लिया था. अभी तक बेचारा इमरजैंसी वार्ड नें भरती है

मेरी धरमपत्नी इतनी कंजूस है की मुझे चपाती की सब्जी खिलाती है.

महिलाओं का थप्पड़ जहाँ ख़तम होता है, पुरुषों का पूशार्थ वहीँ से शुरू होता है

किसी को अपने से दूर मत जाने दो, वो बहुत जल्द आपके बिना रहने का अभ्यस्त हो जायेगा

पूर्णतावादी. वो व्यक्ति जो सुबह अपने बिस्तर पर इस्त्री करता है

समाज उस औरत का नाम है जिससे आपके अवैध सम्बन्ध हैं

पकौडे और औरत बरसातों में बहुत भाते हैं

कई व्यक्ति सड़क पर चलते भी ऐसे हैं जैसे धरती पर एहसान कर रहे हों

नई बहु का घर में पाँव पड़ते ही उस घर की किस्मत तय हो जाती है.

घर में एक बुजुर्ग का होना ठीक वैसे है जैसे बरसात में आपके सर के ऊपर एक छत का होना

भगवान् तो बुल्लेट ही चलाता होगा और सारी देवियों की कारों के बम्पर उखडे होंगे

कुछ लोग इतने निराशावादी होते हैं की शादी से पहले ही तलाक का वकील कर लेते हैं

मन ही मन आपका ससुर आपको ढक्कन मानता है

ताज़ा जानकारी के अनुसार हिटलर ने खुद को गोली नहीं मारी थी, मुझे पहले ही पता था ये किसी सास का ही काम होगा

आशावादी चोर वो है जो पहले तो आपके घर चोरी करेगा और बाद में फ़ोन करके आपके चुराए गए खराब टीवी के लिए आपको गालियाँ सुनाएगा.

किसी पहाड़ पर चढाई करने से आपको अपनी औकात का पता लग जाता है

जरूरी नहीं की इतिहास सच हो, क्योंकि विजेता उसे अपनी सुविधा अनुसार बदल डालते हैं

बुद्धिमान इतिहास बदल डालते हैं, मुर्ख उसपर लड़ते हैं

बुद्धिमान युद्घ की रूपरेखा तैयार करता है, मूर्ख युद्घ में मर कर रूपरेखा ही बना रह जाता है

कई बार किसी की सोच बदलने को सालों इंतज़ार करना पड़ता है

आशावादी व्यक्ति वो है जो भूकंप को खुदा का कमर की चर्बी कम करने का उपाय मानता है

कल बम पटाखों की आवाजों के बीच कुछ पत्नियां उड़ गई होंगी तो आश्चर्य मत करना

कल पडोसी की पटाका बीवी के सामने तो कई एटम बम भी फ़ेल हो गए होंगे

हवा में उछली गेंद और महिला को लपकने के लिए सब तैयार रहते हैं

स्त्री एक पतंग होती है व पुरुष उसकी डोर, ये डोर टूटते ही सारी दुनिया उसे लपकने को भागती है

एक स्त्री व पुरुष की श्रेष्ठता उनके बच्चे ही तय करते हैं

भगवान् दुःख के टीके इसलिए लगाता है की आपके सुख चंगे हो जायें

गुलाब के फूलों की खपत देखें तो महिलाएं पर्यावरण के लिए सबसे ज्यादा खतरनाक हैं

मन को हार मान लेने देना अपनी आत्मा का अपने ही सामने बलात्कार होते हुए देखने जैसा है

जीवन में जितने कम से जितना ज्यादा गुज़ारा करोगे उतने ही सुखी रहोगे

अपने बारे में उतना ही बोलो जितना जरूरी है क्यूंकि समझदार आपको पहचान जायेगा और मूर्ख को आप

बिना डोर की पतंग और खुली हुई भैंस, जहाँ जाती है लूटी ही जाती है

शेर की आवाज़ गधे सी होती तो हर चलता फिरता उसे छेड़ कर जाता

एक मेंडकी कई मेंडकऔं के ऊपर भरी होति है

शेर सा रूतबा गधा कभी नहीं बना सकता

हाथी जिसे अपनी मदमस्त चाल कहता है वही एक चींटी के लिए प्रलय है

झूठ को सच बनाने में कई शातिर दिमाग, खबर और विज्ञापन जगत, और सालों लगते हैं

कई बार जो खबर आपको दिखलाई जाती है वो आप ही को दिखलाने के वास्ते बनाईं जाती है

अगर कानून के सहारे चलोगे तो कुछ वक़्त बाद वो आपका सहारा लेकर चलना शुरू कर देगा

मेरी अपनी रची कुछ जीवन की सूक्तियां -Part 3

दिल और दिमाग की लड़ाई के बीच अक्सर एक औरत ही तम्बू गाडे मिलती है

किसी के फुकरेपन में किये गए एहसान उसकी संपन्नता आते ही भुला दिए जाते हैं

एक साडी लड़की को महिला बना देती है

औरत के खानदान का उसके पहनावे और मर्द के खानदान का उसकी शालीनता से पता चलता है

उधार मांग कर जीने वाले की उम्र बहुत लम्बी होती है

साडी की रचना जरूर एक रूमानी शख्स ने की होगी.

एक महिला जब आपकी और देख मुस्कुराती है उसका असली मतलब होता है "मूर्ख अभी भी समय है, संभल जा"

औरत एक वो चरित्र है जो पहले तो आपको एक ग्लास पानी देकर आपकी प्यास बुझायेगी और फिर आपको कुंवा खोदने को कहेगी

कोयल की मीठी आवाज़ के पीछे कौवे का दर्द होता है

बच्चों को अगर समझना है तो उन जैसे ही बन जाओ

20 साल 40 दोस्त,30 साल 20 दोस्त 40 साल 10 दोस्त 50 साल5 दोस्त 60 साल सिर्फ कन्धा देने को 4 दोस्त. वो चार दोस्त आज से ही कमाना शुरू कर दें

किसी के भी दिल में जगह बनाने से पहले वहां बहुत सारी साफ़ सफाई करनी पड़ती है

महिलाओं की यादाश्त भी अगर खो जाये तो भी वे होंठो पर लिपस्टिक लगाना नहीं भूलेंगी

हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई आपस में हैं भाई भाई- वो तो ठीक है पर वो मुआ पूजा वाला कमरा ही तो फसाद की जड़ है !

अगर भगवान् है, तो शर्तिया बुल्लेट ही चलाता होगा, पर सब देवियों की कारों में बहुत डेंट पड़े होंगे

शराब पीने और छोडने के बीच बहुत सारे सरदर्द होते हैं

कुछ लोगो की जबान इतनी लम्बी होती है की आप उसपर कार रेस आयोजित कर सकते हैं

आपके कथन से ही आपके चरित्र की रूपरेखा तैयार होती है- इसलिए जो बोलें, सोच विचार कर बोलें

हमेशा बड़ी विपदा का स्वागत करो- क्योंकि विपदा के आते ही सच और झूठ की पहचान भी आती है

जैसे प्यार के साथ समर्पण आता है वैसे ही विपदा के साथ कुछ नए रिश्ते भी आते हैं

गलती की सजा अवश्य दो पर उतनी ज्यादा नहीं जितनी छोटी गलती हो

कभी आंख मिला कर बात न करने वाले व्यक्ति पर विस्वास न करो

रोओ भी कुछ इस तरह की खुदा को भी तुमपर हंसी आ जाये

"भैया ................थाने तक जाना है जाना है" ये बोलकर ऑटो में बैठोगे तो शर्तिया बात, वो आपको सही भाडा बताएगा.

आपके इलाके का पानवाला भैय्या और नाई आपके चरित्र का पूरा हिसाब किताब रखता है. इनसे बना कर रखना.

गौर करना. बारिश के दौरान अक्सर लडकियां भीगना पसंद करती हैं

जिन नवदम्पतियों के जल्दी औलाद नहीं होती वे पड़ोसियों और रिश्तेदारों की गप्पों के प्रिय विषय होते हैं

कभी भी इतनी अच्छे न बनो की एक दिन खुद के लिए ही बुरे बन जाओ

"खाने से पहले अपने हाथ धो लें" आजादी के ६२ साल बाद भी हमारे रास्ट्रीय चैनल अगर ये दिखाते हैं तो सोचिये अभी कितना दूर जाना है

मेरे दिमाग और दिल की दूरी के बीच कई डाक्टरी कष्ट हैं.

जरूरी नहीं की आपकी प्रेमिका का पिता आपको इसलिए घूरे क्योंकि आप उसे नापसंद हो, हो सकता है आपकी जिप खुली हुई हो या फिर आपने लाल रंग के मोजे पहने हों.!!

हर जाने वाला मेरा एक हिस्सा तोड़ कर ले गया, आज होश में अपने को देखा तो पाया मैं तो किसी और की साँसों में हु दूर से अपने आपको देखा तो निढाल पाया, फिर गौर से देखा तो पाया की मेरा साया भी कोई तोड़ ले गया

पिछले 10 सालों की बातें याद करके लगता है हम कितने बड़े ढक्कन थे

एक मर्द की सिर्फ दो ही असली इच्छाएं होती हैं, भूख और प्यास. बाकी सब नौटंकी है

हौवा के सेब खाते ही खुदा को समझ में आ गया होगा की सॉफ्टवेर प्रोग्राम में वाइरस आ गया है

किसी काम को करना और समझना एक कला है, जो इसे समझता है वो ज्ञानी है, और जो नहीं वो एक सरकारी कर्मचारी है

राम और रहीम के बीच से अगर ये नेता नामक ढक्कन हट जाये तो ईद की सिवैयां बहुत मीठी लगेंगी

औरत प्रेम तो किसी बुद्धिमान पुरुष से ही करेगी पर शादी किसी ढक्कन से

काश शादियाँ डाउनलोड की जा सकती और पसंद न आने पर डिलीट भी

एक संस्कारी व्यक्ति की सबसे पहली पहचान है की वो महिलाओं को पूरा सम्मान देगा

अगर अपने आंसू नहीं छिपा सकते तो फोरन गोलगप्पे खाना शुरू कर दीजिये

अगर दोस्तों की सही पहचान करनी है तो उनसे तब उधार मांगो जब आपके पास पैसे हों

मेरी रची जीवन की कुछ और सूक्तियां -Part 2

१० मर्दों के बीच अगर एक महिला खड़ी हो जायेगी तो खुद बा खुद उनके काम करने की क्षमता बढ़ जायेगी

हर बाप को दूसरे बच्चे में अपना बच्चा नज़र आता है और हर दूसरे की बीवी में एक नई बीवी

अगर सेक्स को एक निहायत ही मनहूसियत से भरा विषय बनाना हो तो साथ में ऐड्स को घोल दो

मैने आज एक ६०-६५ साल के बूढे को एक १६-17 साल की लड़की को घूरते पाया, पर अजीब बात ये थी की उसकी आँखों में आशा की वो किरण थी जिसे देख लगता था की उसे पूरी उम्मीद थी की वो लड़की भी उसे उस ही भावना से ठीक वैसे ही घूरेगी. इसे कहते हैं जनाब सकारात्मक सोच. जीवन में मैने किसी के अन्दर इतना अति आत्मविश्वास कभी नहीं देखा

भगवान अगर है तो वो जरूर सरदार ही होगा, क्यूंकि वो हर कोने हर जगह पाया जाता है - सत् श्री अकाल.

आजकल म्यूजिक चैनल के कई विडियो को देख कर लगता है की लड़के को मिर्गी और लड़की को करंट की नंगी तार छूने की बीमारी है

मुझे कई बार आजकल के गानों के नाच देखते वक़्त अपने स्कूल की पी टी याद आ जाती है

आजकल के टीवी कार्यक्रमों को देख कर ये लगता है की उन्होंने ठान ली है की जो गन्दा और फूहड़ है वो हम बनायेंगे, बाकी फिल्मवालों को बनाने दो

मेरी गाँव की भोली भली माताजी आजकल टीवी गुड टाईम्स देखती हैं, उनकी सफाई है "पुत्तर और क्या देखूं, बहु मेरी है नहीं सास बहु सीरियल देख कर भी किसे कोसुं ?

प्रोडक्शन के पेशे में रहने के कई दोष हैं, कभी किसी निहायत खूबसूरत लड़की को देखता हूँ तो सिर्फ एक ही ख्याल आता है, भगवान् ने किस सप्लायर से इसे बनवाया होगा?

गीतकार एक अच्छे संगीतकार के बगैर ऐसा है जैसे की धागे के बगैर मोती, एक अच्छा संगीतकार ही गीतकार की मर्यादा बचा सकता है

लेखकों के साथ समस्या ये है की वो बिजली के बिल में भी कमियाँ निकालने बैठ जाते हैं

Tuesday, August 18, 2009

किस्मत का कुम्हार

मैं कौन हूँ? बस एक कुम्हार
जिसने तुझे मिटटी से प्याला बना डाला
अब ये तेरी इच्छा है की तू पूजा का दीप बन
या फिर बन मय का प्याला
पर मय से मदमस्त हो लोग प्याला गिरा तोड़ डालते हैं
पूजा के दीप फिर भी कुछ दिन और महीने जी जाते हैं
पूजा के दीपो को गिरने का भय नहीं होता
वो तो गंगा में ही बहाए जाते हैं
मिटटी की नियति है, वो फिर एक दिन मिटटी में मिल जायेगी
पर तब इस कुम्हार तक तुम्हारी पुकार पहुँच ही न पायेगी
जिस मिटटी से मैं बना हूँ, वो मिटटी भी मुझे कभी बुलाएगी
उसी मिटटी से फिर एक नया कुम्हार बनेगा,
और फिर कुछ प्यालों की किस्मत लिखी जायेगी

Sunday, August 9, 2009

आजा मेरे मौला

दौड़ा दौड़ा मुझे तू थक गया होगा
आजा तेरे पाऊँ दबा दूँ मौला
उस रूखी मस्जिद की महफिल से जुदा
तुझे मीठी सी लोरी सुना दूँ मौला
हवाओं के पंखे घुमा घुमा के
तूफानों की पतवार चला चला के
तेरी रीड की हड्डी भी दुखती तो होगी
तेरी पीठ पे तेल आज लगा दूँ मौला
रोज रोज सुन अजान और अनजान
तेरे कान भी अब तब तरसते तो होंगे
मेरी गली आजा, कुछ रूखा सूखा खा जा
कुछ तेरा भी मन आज बहला दूँ मौला
सब कुछ घुमा के, सब को चमका के
तेरी एडियाँ भी अब फट फटा सी गई है
पहाडों समंदर से सूरज लुड़काते
तेरी आँखें भी अब कुम्भला सी गई हैं
जरा पास आजा, पाँव मुझसे धुलवा जा
तेरी उंगलियाँ अंगूठे चटका दूँ मौला
दौड़ा दौड़ा के मुझे तू थक गया होगा
आजा तेरे पाऊँ दबा दूँ मौला

इन्कलाब

इन्कलाब ऐसे नहीं आयेगा
थोडा खून दो, थोडा पसीना
कुछ विचार दो, कुछ आकार दो
सूरज से धक्कामुक्की करो
और ज्वालामुखी जमा दो
कुछ रास्ते छोटे करो
कुछ पंख बड़े करो
परिवर्तन में परिवर्तन करो
क्यूंकि इंक़लाब ऐसे नहीं आयेगा

Monday, July 13, 2009

माइकल जैक्सन की मौत

सुबह शाम टीवी पर किसी के मर जाने की खबर आ रही थी
लालता प्रसाद की जोरू रो रो कर हाहाकार मचा रही थी
" अरे माइकल जैक्सनवा मर गवा, हमार जैक्सनवा मर गवा"
का घोष लगा विलाप के सुर में गा रही थी
लालता प्रसाद के होश गुल थे, उसके पास २० रुपये कुल थे
"ई ससुर माई का लाल जैकिसनवा कौन बा, लागत है मेहरारू का भाई बा"
बस आव देखा न ताव, लालता प्रसाद ने दौड़ लगाई
बनिए की दूकान के आगे अपनी सरपट को लगाम लगाई
" बाबूजी हमार साला मर गवा, हमऊ का थोडा उधार चाही"
"टीवी माँ खबर फैली बा, माई का लाल जय किसन अब जिन्दा नाही"
ये सुन बनिए का सर चकराया, उसके समझ में एक विचार आया
झट फ़ोन कर उसने टीवी चैनल के संवाददाता को बुलवाया
भारी भरकम कैमरे लिए टीवी चैनल का हुजूम दौड़ा चला आया
लालता प्रसाद के साक्षात्कार लेने वालों की लाइन लग गई
"माइकल जैक्सन का भारतीय जीजा" की हेडलाइन अखबारों में छप गई
लालता प्रसाद की जोरू के तेवर देखने लायक थे
उसके आगे तो आज सारे नालायक थे
वो कोठी की मेमसाब की फटी साडी पहन चुलबुला रही थी
हर सवाल के जवाब में " जस्ट बीट ईट " गा रही थी
पूरे देश में लालता प्रसाद रातों रात मशहूर हो गया
उसका आल इंडिया टूर किसी चैनल और प्रायोजक से अप्रूव हो गया
वाह री चैनल पच्चीसी की माया,
एक का नहीं तूने तो करोडो का बेवकूफ बनाया
ऐसे ही ये सब बेवकूफ बनते रहेंगे,
अभी कई मौतें हैं और आयेंगी ऐसी
जिसमे कई लालता प्रसाद बनते बिगड़ते रहेंगे

Friday, July 3, 2009

बन्दर की छलांग

चाँद सूरज पर जाने को इंसान छलांग लगा रहा है
देखो कैसे उसका अन्तरिक्ष यान मंगल गृह जा रहा है
अपनी घर में तो सेंध लगा ही ली,
अब और कुछ सत्यानाश करने का विचार बना रहा है
खुद को तो जीत न पाया कभी
अब आकाशगंगा को हराने की जुगत लड़ा रहा है
धरती पर ठीक से न चल पाने वाला
देखो कैसे कुदरत को दोड़ना सिखा रहा है
अपनी ही तकनीक के औजारों से
देखो मूर्ख कैसे अपनी ही कबर बना रहा है
देखो कैसे बन्दर इतरा कर छलांग लगा रहा है

Thursday, July 2, 2009

दिल और दिमाग

कभी खुद से बातें कर के देखा है ?
दिल और दिमाग के द्वंद युद्घ का कभी कोई परिणाम देखा है
दिमाग से चलो तो कश्मीर फिलिस्तीन तिब्बत सा हाल पाओगे
दिल से सोचो तो जर्मनी की दीवार गिरा एक हो जाओगे
कितने ही सम्मेलन या शिखर वार्ताएं कर लो
आदमी के दुःख दर्द को समझो तभी देश चला पाओगे
संत सी सोच चलो तो कुछ कांटे तो चुभेंगे ही
चोर सी सोच में तो कांटे ही राह बन जायेंगे
महुवे से सब्जी तरकारी बना लो या फिर शराब
दिल से सोच लो या दिमाग से, दोनों की ही है अलग बात
एक गणित सी जटिल सोच बनाता है और दूसरा जटिल को सरल
दिल और दिमाग की लडाई में दोनों ही है अविरल

लालता प्रसाद का घर

जोरू टीवी देख बुद्धिमान हो रही थी
लालता प्रसाद की नींदें हराम हो रही थी
अढाई हज़ार रुपईया महिना की पगार, और ऊपर से जाफरानी ठर्रे का खर्चा
हर महीने बनिए का मिल जाता एक और उधार का पर्चा
कलुआ और देवकलिया भी स्कूल जाने लगे थे
उनके मास्टर भी न जाने क्या क्या पाठ पढाने लगे थे
लुगाई का क्या है, वो तो कोठी में झाडू पोचा कर आती है,
मेमसाब की फटी साड़ी को पहन, प्रियंका चोपडा बन जाती है
न जाने क्या क्या उनके टीवी पर देख के आती है
रात को अजीबोगरीब उलूल जलूल हरकतें कर रात भर जगाती है
कब सुबह होती है और कब रात, लालता प्रसाद का हर दिन हर नयी रात
पास की कोठी के सभरवाल जी की हालत खस्ताहाल है
दिल ने साथ छोड़ डाला, जोरू का भी बुरा हाल है
ठर्रा नहीं वो अंग्रेजी का नशा करते हैं
माँ बहिन की तो नहीं पर अंग्रेजी में गाली जरूर बकते हैं
कलुआ और देवकलिया की तरह उनके बच्चे भी स्कूल जाते हैं
पडोसी बताते हैं वो स्कूल में तो नहीं पर सिनेमा हाल में पाए जातें हैं
बनिया तो परेशान नहीं करता पर रिकवरी एजेंट कभी कभार घर आते हैं
एक आध थप्पड़ और कभी कभार एक आध घूँसा रसीद कर जाते हैं
लालता प्रसाद के घर न नलका, न बिजली, न पानी है
फिर भी कलुआ और देवकलिया के लिए वो सपनो की धानी है

सपने ने मुझे देखा

एक रात एक सपने ने मुझे देखा
बोला... तुम तो बहुत गुणवान हो,
ये क्यूँ नहीं करते, वो क्यूँ नहीं करते
ऐसा क्यूँ नहीं करते, वैसा क्यूँ नहीं करते
ये करोगे तो ये हो जायेगा, वो करोगे तो वो हो जायेगा
सारा जटिल गणित देखो कितना सरल हो जायेगा
मैं कुछ न बोला, बस टकटकी लगाये देखता रहा
सुबह ने बहुत सरलता से लील डाला उस सपने को
और फिर मैने उस सपने को देखा
श्रींगार रहित, अपने असली रूप में
सपना मुझे देख रो पड़ा
आज मैने उस सपने का फिर से श्रृंगार किया
मेरा सपना वो नहीं जो मुझे बतलायेगा
मेरा सपना वो है जो सच हो सुबह को लील जायेगा
सपना मेरा वो नहीं जो रात को सुनहरा बनाएगा
सपना मेरा वो है जो दिन को प्रकाश दिखलायेगा

Wednesday, May 20, 2009

लालता प्रसाद की नींद

नई सरकार बनी, पब्लिक जश्न मना रही है
अभी भी २५ रुपईया किलो टिंडे की सब्जी बना रही है
कहीं आडवाणी मुह लड़काए बैठा है
कहीं सोनिया दूध मलाई खा रही है
देखो प्रजातंत्र की सरकार कैसे शराबियों सा शोरगुल मचा रही है
ये सारे ढोल नगाड़े जल्द ही शाम से ढल जायेंगे
फिर से ये सारे मंत्री संत्री प्रेम चोपडा बन जायेंगे
मनमोहन देसाई की फिल्मों सा पुराना नज़ारा है
हर मंत्री पांच साल में आता जाता बंजारा है
कल फिर लालता प्रसाद सोनिया मनमोहन को कोसेगा
मोहल्ले का बनिया फिर उसका ३०० रुपये का उधार रोकेगा
फिर चुनाव आयेंगे, फिर कुछ जोकर चीखेंगे चिल्लायेंगे
सर्कस में फिर कुछ जानवर अन्दर बाहर से शामिल जो जायेंगे
सवाल ये नहीं की कब तक ये चलेगा
सवाल ये है की लालता प्रसाद कब नींद से जगेगा
मिस्टर वर्मा, शर्मा कुछ न कर पायेंगे
वो तो बाबु हैं, बाबूगिरी में जिए और वहीँ मर जायेंगे
लालता प्रसाद जिस दिन जागे, सुबह तो वहीँ ही आयेगी
प्रजातंत्र की ताज़ी हवा, तभी देश को आजाद कराएगी

Sunday, May 17, 2009

ब्रह्माजी की नारी

कभी कभी एक नारी ही क्यूँ दूसरी नारी की दुश्मन होती है
क्यूँ किसी की साड़ी किसी दूसरी की साडी से ज्यादा सफ़ेद होती है
कोई पाउडर तेल लगावे तो दूसरी झुरियों को छिपावे
फिर भी "मैं तुझ से ज्यादा सुंदर" का शंखनाद जोर जोर से बजावे
हिसाब से चलो तो हर औरत के हिस्से एक मर्द आयेगा
फिर भी पाउडर तेल लगाने का खाका भला किसकी समझ में आयेगा
अगर वो मर्द उसका ही है, तो भला वो पाउडर तेल क्यूँ लगावे
नारी के अन्दर के भेद देख तो भाई ब्रह्म भी चकरा जावे
लगे है की पाउडर, इतर से मर्दों को रिझाया जा रिया है,
फिर भी उसका मर्द घर की कामवाली से चक्कर क्यूँ चला रिया है?
अब मर्दों की क्या बात करें, वो तो उनकी नज़रों में जानवर हैं,
फिर जानवरों को प्रेम से निवाला क्यूँ खिलाया जा रिया है ?
भैया बहुत कनफूजन है, कोई तो आके गुत्थी सुलझाओ
ब्रह्माजी तो हार गए, अब किसी और केन्ड्डीडेट को तो आगे लाओ ?

Friday, May 15, 2009

एक बाँध का सब्र

ज्यादा बुद्धिमान होना भी एक अभिशाप है
या कुछ ज्यादा ही पा लेना फिर पाप है
छलकोगे तो कहाँ बांटोगे अपनी आप को ?
यहाँ तो सर कटे शवों की भरमार है,
हर विक्रम के कन्धों पर बैठा एक वेताल है
बाँध का सब्र भी तो टूटता होगा कभी
उसके सीने में भी बह जाने का बीज उगता होगा कहीं
चलो आने दो उस पल को भी एक दिन अपनी और
छलकने दो, टूट और बह जाने दो उसे भी एक दिन
सारे वेताल अपने आप ही हवा में हवा हो जायेंगे
उस दिन कुछ सुकरात मरेंगे और कुछ यीशु पैदा हो जायेंगे

Wednesday, May 13, 2009

सपनो के मोजे

सब्जबागों में पले सपने कोई अब तक सच न कर पाया,
धूल के तिलक में चन्दन की खुशबू कभी न कोई ला पाया.
कौन कहता है सपने सांकल नहीं खड़खडाते,
कुछ लोग बस सपनो को देख ही नहीं पाते.
हिमालय की पूजा करो तो शिखर चढ़ ही जाओगे,
वरना उसके उग्र हिम्म्स्खलन में कभी दब जाओगे.
प्रेम के मायने ना ही जानो तो अच्छा है,
मत बोलो की वो झूठा है या सच्चा है.
हर सांस को आखरी सांस समझ कर जी लो,
क्यूंकि हर बूढे के अन्दर छिपा एक बच्चा है.
संभलोगे खुद तो नस्लें संभल जाएँगी,
वरना किस्मत शताब्दियों तक ठोकरें खिलवाएगी.
अपना जूता तो हमेशा काटता ही है,
किसी और के जूते में अपनी सपने तो डालो,
जिंदगी खुद बा खुद गद्दी सा मोजा बन जायेगी.

Wednesday, March 11, 2009

मुंबई की होली

आज धरती पर से वो खूं के निशाँ धुल गए
पक्के रंगों में कई फल फूल और मिटटी के रंग घुल गए।
किसी ने पिनक में, , किसी ने बिना पिनक में धो डाले,
आज किसी ने उन खूं से सींची धरती पर फिर से बीज बो डाले।
होली का बहाना था, कुछ न कुछ तो कर दिखाना था,
जीवन तो चलता है चलता रहेगा, जीवन को ये बताना था।
सो गुलाल मला गया, रंग छिडके गए, बाजे बजे गाजे बजे,
लोग आये गले मिले, मोहल्ले गली दुल्हन से सजे।
बहुत से घरों में आज भी मातम था,
वहां मरने वालों की तस्वीरों की मालाएं सूख गई थी।
सिर्फ चार पाँच महीने पहले की तो बात है,
मुंबई में कुछ सौ घरों में जिंदगियां रूठ गयी थी।
बहुत सी मोमबत्तियां जलीं, बहुत सी कवितायेँ गडी,
कितने ही भाषण हुए, कितने ही जुलूस निकले।
सिर्फ चार पाँच महीने पहले की तो बात है,
कोई बोला था "अब और नहीं"
सिर्फ चार पाँच महीने पहले।

Monday, February 16, 2009

ध्वज

ख्यालों के कलेवे सपनो को जीमाता जाऊं
सपनों के निवाले खा आगे बढ जीता जाऊँ।
जीने की चाह को हीरे सा कठोर बनाऊं,
कठोर सी राहों में आशाओं का गलीचा बिछाऊं.
बिछे हुए सपनों को प्यार की नींद सुल्वाऊं,
नींदों में शहद घोल उनको मीठा कर जाऊँ.
कभी धूप पी लूँ तो कभी छाँव निगल जाऊँ।
जलते मन को बावली बावली जा बुझाऊं,
धमनियों का खून पसीना बन न पिघले।
सूखती साँसों पर आशा की गीली पट्टी लगाऊं,
शहर की कोलतारी सड़कों पर अपनी सपनो की छाप छोड़ जाऊं।
मन की लगाम खींच कभी इधर कभी उधर दौडाऊं,
प्याऊ बन हर प्यासे के खेत सींच फसल उगाऊं।
खोखले तन मैं आशाओं की रणभेरी बजवाऊं,
मन तन और प्रयत्न के युद्ध में, ख़ुद झंडा बन शत्रु के किले पर लहराऊं।

Friday, February 13, 2009

अध्यापक

बचपन को छड़ी और थपथपाहट से संवारता अध्यापक,
कभी मार्गदर्शक तो कभी माँ बाप सा डांटता अध्यापक।
जीवन रुपी जटिल मार्ग पर, ज्ञान रुपी सेतु बनाता अध्यापक,
मष्तिष्क के कोरे पन्नों में ज्ञान के अक्षर सजाता अध्यापक।
कभी महात्मा गाँधी तो कभी सरदार पटेल बन जाता अध्यापक,
लडखडाते क़दमों को चलना सिखाता अध्यापक।
माँ की कोख से जन्मे बच्चे को आदमी बनाता अध्यापक,
बूढे बाबा की लकड़ी सा, चूल्हे में बसी गर्मी सा अध्यापक।
कभी अन्धकार में दिए सा कभी प्यास में पानी सा अध्यापक,
अपनी थप्पडों से, अपनी छड़ी की मार से लाखों आसीसें देता अध्यापक।
चाँद, विज्ञान, विमान, अंतरिक्ष, यान समझाता बतलाता अध्यापक,
ऊँचे आकारों और विचारों को धरती पर चलवाता अध्यापक।
दूर खड़ा छिपा मेरी प्रगति को निहारता मेरा अध्यापक ,
मेरा पिता, मेरी माँ, मेरा गुरू मेरा अध्यापक।

Sunday, February 8, 2009

दीमक इंसान

दीमक को कभी देखा है ध्यान से ?
कैसे बड़े बड़े पेड़, दरवाजे, कुर्सी, मकान निगल जाती है।
एक छोटा अदना सा प्राणी, जो शर्मीला बन छिपा रहता है,
अपनी मेहनत से बनाये बिल में।
कितना बौना बना देता है इंसान रुपी दैत्य को।
अणु बम बगल में लिए फिरता ये इंसान,
कैसे पिचकारी में जहर लिए फूं फूं करता फिरता है,
इस अदने से प्राणी को मिटाने के लिए।
अदना कौन है, ये अब कोई इससे पूछे,
दुनिया भर में अपनी डींगें हांकता है,
घर आकर दीमक के आगे हांफता है।
एक अदना प्राणी किसी सर्वोच्य के आगे,
कितना बौना बन मिटटी फांकता है।

Friday, February 6, 2009

राम या रावण


जलते रहो, चलते रहो
धधकते रहो, उबलते रहो,
संभालते रहो, बदलते रहो
क्योंकि यही नीयति है.
शिकायत किससे? ख़ुद से?
नही तो और किससे ?
कौन बदलेगा तुम्हारा पथ?
कौन उबालेगा तुम्हारी सुबह?
जीवन के सिर्फ़ दो ही जवाब होते हैं.
हाँ या फिर ना.
राम या फिर रावण.
सभी राम तो नही हो सकते
और सभी रावण भी.
तो दोनों में से किसी को तो चुनना होगा.
पथ वो ही तय करेगा.
राम या रावण.
मन रुपी राम या रावण में ही सब उत्तर हैं . . .

Thursday, February 5, 2009

उम्मीदों का नेवला

गौर से देखो तो कोई इंसान भिखारी नही होता,
उसके कटोरे में उम्मीद के चंद सिक्के जरूर खनखनाते हैं।
कहीं भी ही, कैसा भी हो, कोई भी हो, किसी भी हालात में हो ,
उम्मीद का नेवला पाले रखता है, चाहे दुखों के सांप कितने फनफनाते हों।
उम्मीद पर ही तो जिंदगी कायम है लोग कहते हैं।
फिर उम्मीद ही कई दफा क्यो टूट जाती हैं ?
"जो होगा अच्छा होगा, तू फिक्र न कर मेरे यार"से
शब्द बार बार क्यूँ जुबान पर आते हैं ?
तू ख़ुद एक उम्मीद है ये सबसे पहले समझ ले दोस्त,
उसके बाद तुझसे बंधी उम्मीदें हैं, और ....
उन उम्मीदों की भी आगे बहुत सी उम्मीदें हैं।
ये सिलसिला बहुत लंबा है।
जब भी तेरी उम्मीदें टूटें, तो कटोरा जरा बजा देना,
चंद सिक्के जर्रूर टपक जायेंगे उसमें देर सबेर।
उम्मीदें गर भीख में मिलें तो दुआएं कहलाती हैं,
वो तुझे कुछ और पुल, नदियाँ और पहाड़ पार करा जाती हैं।

Wednesday, February 4, 2009

तब से अब

मुझे पता ही न चला पावों के नीचे से धरती कब खिसकी
मैं तो आसमां में पींगे लगा रहा था।
जब नीचे आया तो धरती न थी,
मैं तो पंख कटा वापस आ रहा था।
कभी कुछ कह तो दिया होता तुमने,
मैं तो कबसे ज़ुबां लड़ा रहा था।
तुमने कहा भी तब बड़ी मुश्किल से,
जब मेरी ज़ुबां पे ताला लगाया जा रहा था।
कोई सुनता न सुनता,
स्वयं अज्ञानी हो प्रवचन सुनाता जा रहा था।
संत मेरे घर कब आया, पता न चला,
मैं तो किसी और घर सेंध लगा रहा था।
सब कुछ थमा जमा था तब,
जब में दौड़ा चला जा रहा था।
जब सब दौडे, उनके पीछे ,
मैं भी दौड़ा चला जा रहा था।
प्यास भी थी और पानी भी,
मैं तो कटे हाथों को सहला रहा था।
अब प्यास है पर पानी नही,
मैं तो मुहं से लोटा उठा रहा था।
अब पानी था, पर प्यास न थी,
फ़िर क्यों वो गंगाजल पिला रहा था।
अब न पंख थे, न पांवों, न हाथ, न प्यास
मैं तो गंगा में बहा चला जा रहा था।
जीवन भर बहलाता रहा ,
अब अपने को बहा ला रहा था ।

Tuesday, February 3, 2009

मेरे देश का शेर

सर पर पगड़ी पहने वो भीड़ में भी अलग दिख जाता है।
हाथ में कडा, सर पर लम्बे केश, बगल में कटार लगाता है।
हर वक्त वो मुस्कुराता रहता, कोई ना कोई गीत गाता रहता,
उसका न कोई आने का समय, न किसी को जाने का पता रहता।
उसके गौरव से पुलकित चेहरे पर हर मौसम पसीना बहता।
बिना नागा हर मौसम वो सुबह सुबह गुरुद्वारे जाता, वहां झाडू लगाता,
गुरु को शीश झुकाता, लोगों के जूते उठाता, गुरु का लंगर चख्वाता।
चाहे हिंदू हो, ईसाई या फिर हो वो मुसलमान,
किसी ना किसी के काम वो जीवन में एक बार जरूर आता।
ख्वामखाह के जुलूसों और जलसों से उसे परहेज है,
झट पैसा कमाने की उसकी व्यापारिक विद्या की बुद्धि बड़ी तेज है।
ऐसे किसी भी जुलूस में वो शायद ही नज़र आयेगा,
गर आया भी, तो छोले कुलचे बेच भूखी भीड़ को, घर कमा पैसे ले जाएगा।
शायद ही ऐसा इंसान देखोगे जो अपने ही ऊपर बनाये चुटकुलों पे हंसता है,
जरा सी मुसीबत उसके दोस्तों परिवार पर आयी नही, वो फ़ौरन कमर कसता है।
किसी महकमें में ये मंझला या उंचा अधिकारी बना, शेर सी मूंछों पर ताव देता नज़र आयेगा,
एक ही कौम है अकेली इसकी जिसमें, कोई भीख मांगता नज़र न आयेगा
हर महफिल में सबसे पहले नाचने वाला ही वो होता है,
ढोल की एक थाप पर ही उसका भांगडा शुरू होता है।
किसी से कोई जुगाड़ ना बन पा रहा हो, उसके पास चले जाओ,
उसके पास हरदम कोई न कोई जादू का पिटारा होता है।
चाहे समंदर हो, बर्फ की पहाडियां हों या हो जलता रेगिस्तान,
कहीं भी वो जरूर दिखेगा चाहे विलायत हो या बलूचिस्तान।
चाँद पर भी कहतें हैं उसने कोई ढाबा खोला है,
अब ये सच है या झूठ, मुझसे तो किसी ने ये बोला है।
विभिन्न रूपों में ये शख्स हमारे आसपास ही रहते हैं,
प्यार से हम लोग इन्हे सत्श्री अकाल "सरदारजी" कहते हैं। ,

प्रिय मित्रों

कल मैने दो कवितांए लिखि जो एक दूसरे से बहुत जुड़ी हैं। उन्हे लिखते समय मेरा स्वयं का मन भारी हो गया था और मैं सोच रहा था की इनको मैं लिखूं न लिखूं। मैं नकारात्मक सोच में विश्वास नहीं रखता और यही कोशिश करता हूँ की कुछ प्रेरणादायी ही लिखूं। हम सब लगभग एक जैसे से ही हैं, फर्क सिर्फ़ इतना है की हम अपनी ही बनाई इंद्रजाल सी दुनिया में व्यस्त रहते हैं और वास्तविकता की ओर काला चश्मा पहने देखते हैं। यथार्थ तो यथार्थ ही रहेगा, उसे मैं या आप कोई भी नही बदल सकता। मेरा हमेशा ये प्रयत्न रहेगा की मैं कुछ ऐसा लिखूं जो आपके मन को सोचने पर विवश करे और आपके होठो पर मुस्कान आ जाए। परन्तु कभी कभी कुछ ऐसा मेरा लिखा हुआ पढो जिससे आप दुखी हो जायें तो मुझे क्षमा कर दीजियेगा। यकीन मानिये मुझे आपके जीवन में दुःख घोलने का कोई हक़ भी नही और ना ही मेरी ऐसी कोई इच्छा है। पहली कविता पढ़ने से पहले कृपया पहले "झुग्गी झोपडियों में एक दिन" अवश्य पढ़ें, उसको पढ़ने के बाद "साफ़ कालोनी का एक घर" और सबसे आखिर में "कंप्यूटर से निकला दोस्त" क्यूंकि ये तीनों कवितायें एक दूसरे से जुड़ी हैं। कुछ में, जो हो रहा है वो व्यक्त है, और आखिरी में वो जो हमें करना चाहिए. आपकी प्रतिक्रियाओं की प्रतीक्षा मुझे रहेगी। कृपया दिल खोल कर लिखें।

कंप्यूटर से बाहर निकला दोस्त

चलो चलो आज अपने कंप्यूटर में बंद सब दोस्तों को धौल जमाते हैं,
उनके चिप, मदरबोर्ड, तारों,से जकडे शरीर को आजाद कराते हैं।
बहुत हुआ हाय, हेल्लो, टेक केयर, सीयू,
उनसे उनके ही घर बिना बताये मिलने जाते हैं।
अरे काम का क्या है, ये तो कभी न रुकने वाला पहिया है,
ये ना किसी की बीवी, महबूबा, भैया या फिर मैया है।
कहीं से भी किसी भी वक्त ये बिच्छूघास सा उग आता है,
कभी गुर्राता, कभी डराता, कभी धौंस जमा धमकाता है।
बेशरम कहीं का, जब देखो मुंह उठाये हमारे ऑफिस घर घुस जाता है,
इसकी बेशर्मी तो देखो, बार बार भगाने पर भी ढीठ सा बत्तीसी दिखाता है.
यारों आज साले #*%$#$@%#$# को अडंगी दे गिरा ही देते हैं,
इसके मुंह में पूरी व्हिस्की की बोतल जबरदस्ती उन्डल्वा ही देते हैं।
कुछ दिन ये अपना बदकिस्मत चेहरा दिखा न पायेगा,
बेशरम तो है ही ये, नशा उतरते ही देर सबेर वापस आ ही जाएगा।
यारों तब तक तो गले मिल कुछ बातें कर ही जाते हैं,
बहुत दिन बीत गए, आओ चलो आज उसी मोटू के घर जाते हैं।
साला अब तो वो और मोटा हो गया होगा,
उसका पायजामा कुछ और छोटा हो गया होगा।
छोटी छोटी डेडलाईनें धीरे धीरे अपनी आप लम्बी हो जाएँगी,
कुछ जाम पिला देंगे उन्हे, साली वो भी टल्ली हो जाएँगी।
डेडलाइन का काम कभी न रुकता है,
हर डेडलाइन, काम बढ़ाने का ही एक घटिया नुस्खा है।
चलो आज कंप्यूटर से निकल हम असल दुनिया में मिलते हैं,
चलते हैं वहां, जहाँ कुदरत के असली फूल खिलते हैं।
वादा करते हैं, घर एक दूसरे के हर पर्व पर जायेंगे,
देसी हैं हम देसी ही रहेंगे, विलायती जामा पहन भी भांगडा पायेंगे।
दीवाली दशहरे, होली साथ साथ मनाएंगे,
दोस्त हैं हम, भला अपनों के नही, तो किसके पास जायेंगे?

Monday, February 2, 2009

एक साफ़ कालोनी का घर

एक झुग्गी झोंपडी की कहानी से प्रेरित हो
मैं लिखने चला एक साफ़ कालोनी के किसी घर की कहानी
जो कहीं मेरे ही घर के पास था
कोई रहता था वहाँ, जीवन बहता था वहाँ, वो बड़ा ख़ास था
सुबह सुबह कोई बाहर से आकर चाय काफ़ी की केतली चढाता
जूस निम्बू पानी बनता, कोई व्यायाम करने मशीन पर चढ़ता
नाश्ता बनता, अखबारें आती, स्कूल की बस बच्चों को स्कूल ले जाती
सूट बूट टाई जूते पहन कोई निकलता ऑफिस की ओर
टिद्धीदल सी भरी सड़क में फँस जाता, जहाँ मचा शोर ही शोर
दिन भर ठंडे ऑफिस में, होड़ की गर्मी झुलसाती
शाम तलक आंखें मुंदने लगतीं, वापस घर जाने की बारी आती
सुबह का वही आलम सड़कों में दोहराया जाता
किसी तरह से कोई वापस घर लौट कर आता
कितनी सुकून की जिंदगी है, घर में राशन ,हर वक्त बहता पानी है
क्या यही साफ़ सुथरी कालोनी के उस घर की कहानी है?
यहाँ किसी बच्चे की नाक साल में सिर्फ़ एक बार बहती है
माँ हर दिन बच्चे को कुछ टोनिक देती रहती है
शराब पी यहाँ उस शराबी की तरह कोई गंदे गीत नही गाता
यहाँ त्योहारों पर भीड़ न लगती, न कोई रोज मिलने आता
कंप्यूटर में बंद दोस्त हैं कंप्यूटर में ही मिल पाते हैं
एक दूसरे का हाल कुछ बटन दबा एस एम् एस भेज पूछ जाते हैं
दीवाली होली भैयादूज दशहरा, पोंगल सिर्फ़ एक छुट्टी के नाम हैं
एस एम् एस जिंदाबाद है, अंगुली दबी, संदेश गया, बस कितना आसान है
यहाँ सपने सच होकर बाद में अपनों को छोड़ जाते हैं
पुराने दोस्त सुदामा की तरह फिर लौट नहीं आते हैं
यहाँ ग़म बस अपनी आवाज निकाल नहीं पाते हैं
कुछ पाने के लिए यहाँ तुम सीढ़ी चढ़ते जाते हो
बाद में दूसरों को अपने ऊपर चढाने की सीढ़ी ख़ुद बन जाते हो ,
यहाँ हँसी होठों पर कुछ जाम लेने के बाद ही आती है
कश पे कश लगते रहते हैं, सीढीयाँ भारी लगने लग जाती हैं
एक दिन उन्हें अस्पताल ले जाती एंबुलेंस भी
उस टिद्धियों से भरी सड़क पर फँस जाती है
भरपूर राशन और हमेशा बहते पानी वाले उस घर से
एक अर्थी करंट की चिता की ओर प्रस्थान कर जाती है
कोई विधवा रात को अकेली खिड़की के पास खडे हो अकेले आंसू बहाती है
साफ़ कालोनी के उस घर के शांत माहौल के,
किसी कमरे की बत्ती, हमेशा हमेशा के लिए बुझ जाती है

झुग्गी झोपडियों में एक दिन

आज उन गली गलोंचों में मैने जीवन उगते देखा
उसको फलते फूलते, दोडते रुकते पकते देखा,
वे वो गलियाँ थीं जो कालोनी के घरों के चूल्हे जलाती हैं,
उनके घर कपड़े बर्तन फर्श मांझ धो, वापस अपनी गंदे में आ जाती हैं।
साफ़ सुथरी कालोनियों में कभी मैने होली इतनी उल्लास से मनते न देखि,
एक अजनबी भीड़ किसी और अजनबी के घर इतनी जमते न देखी।
वहाँ कूचे कूचे पर चौपाल थीं, जो हर इंसान को दूसरे से मिलाती थी,
शहर की कन्नी काटती भीड़ सी वो भागी न जाती थी।
वहां आंसू पीकर लोग प्यास बुझाते, नलकों में क्यूंकि पानी न था,
फिर भी काम पर जाते चूँकी उनका कोई सानी न था।
बच्चे धूल मिटटी में खेल रहे थे,
डॉक्टर वैज्ञानिकों के दावे गन्दी नालियों में उंडेल रहे थे।
किसी की नाक बह रही थी तो कोई पेंचा भिड़ा रहा था,
एक किसी साफ़ कालोनी वाले बच्चे को नाक चिढा रहा था।
औरतें पानी भरने के लिए एक दूसरे से लड़ भिड रही थी,
एक बूढी दादी किसी शराबी की गन्दी गालियों से चिड रही थी।
दोपहर तक सब ठीक ठाक सा हो गया,
वो शराबी भी गहरी नींद सो गया।
शाम को एक और नया आलम था,
कोई किसी का भाई तो कोई बालम था।
सब मिल बाँट खा रहे थे, दिन के दुखों को ताडी पी डूबा रहे थे।
दूर उस साफ़ कालोनी के मकान की किसी खिड़की पर खड़ा कोई रोता था,
उसके पास सब था, मगर कोई ना था।
उसके पास रोने का सिर्फ़ यही एक मौका था।

काली हुई नदियाँ

कल बच्चों के एक स्कूल में चित्रकला प्रतियोगिता देखी
नन्हे नन्हे बच्चे कल्पनाओं की उड़ान लगा रहे थे
कुछ हाथी घोडे, कुछ नदिया, पहाड़ आसमान बना रहे थें
पहाडों को हरे की बजाये भूरा बना रहे थे
आसमान व नदियों को भी नीला न कर काला बना रहे थे
उनकी आँखें जैसा देखेगी भला वैसा ही तो बनाएगी
उन नन्हों को क्या पता की ये दुनिया क्या थी, हुई,व हों जायेगी
कभी हम भी तो उन नन्हों से थे जब पहाड़ हरे भरे थे नदियाँ नीली थी
उनपर बसंत में गिरे पेडों की पत्तियाँ पीली थी
आज ऐसा क्यों की हमारे बच्चों को उनके वास्तविक रंग पता नहीं
अभी तो कुछ बचाखुचा है, बाकी, कल होगा क्या, ये भी पता नहीं
खाली पर्यावरण बचाओ के नारे लगाने से कुछ ना होगा
एक हाथ से ले एक हाथ से दे वाला नियम ही यहाँ लागू होगा
ले तो बहुत लिया हमने अब क़र्ज़ उतारने की बारी है
बताओ अपनी दुनिया को इस बार फिर बचाने की हमारी कितनी तैयारी है

बन्दर जलाए नेता

ये नेता रुपी कीटाणु हर जगह मिल जाता है
बैलगाडी के लायक नही फ़िर भी मर्सडीज में जाता है
हमारा ही दिया खा फिर हम पर ही गुर्राता है
हमारे घर में चोर सी सेंध लगा चुनाव के पर्चे फ़ेंक जाता है
मंच मिले तो भोंकता है, हमारे ऊपर उल्टे सीधे कानून थोपता है
पर अपने बच्चों को दूसरों का, बलात्कार करने से नही रोकता है
कभी फौजी की वर्दी बेच आयेगा, कभी तोपों का कमीशन खायेगा
स्विस बैंकों के अपनी खातों में कन्हैयालाल की कमाई जमा कराएगा
पीएगा मिनेरल वाटर, और गावों गावों पानी पहुचाने के वादे करेगा
हमारे टैक्स के पैसे से अपने नाती पोतों के मोबाइल बिल भरेगा
नाटकबाजी में तो ये भांडों को भी मात देता,
अपने सगे भाई की सुपारी किसी और "भाई" को देता
हर कहे वाक्य को नकारता, हर पार्टी फंड में चंदा देनेवाले को पुकारता
हर सच्चे अधिकारी को सुकरात की तरह ज़हर दे मारता
इसकी लंका में राक्षसों की भरमार हैं,
सफ़ेद टोपी पहने ये जनता का पहरेदार है
नेताजी अब सुधर जावो, हवा कुछ सुहानी चली है
नई पीड़ी अंडे से बाहर निकल झंडे फहराने चली है
कहीं ऐसा न हो तुम भोंकते रहो और कोई पीछे से च्यूंटी लगा जाए
कोई पुराना वानर आ चुपके से तुम्हारी लंगोट सी लंका में आग लगा जाए

सच्ची सुबह

सुबह सुबह जागो तो दुनिया असल रूप दिखाती है
दिन में तो वो घूंघट ओडी स्त्री सी अपना रूप छिपाती है
कभी दोड़ते दोड़ते अचानक थम जाओ, सबकी चाल देख पाओगे
किसकी कितनी गति और अवगति है, सब जान समझ जाओगे
दौड़ते समय जो आंखों से बच जाती हैं
थम कर देखने से वो बारीकियां साफ़ नज़र आती हैं
जमघट हो आसपास, तो अपना पराया दिखाई नही देता
विपदा के वक्त कहते हैं साया भी साथ नही देता
विख्यात हो प्रशंसा सभी पा जाते हैं,
उनके ऊटपटांग शब्द भी तब एक सिद्धांत बन जाते हैं
ठीक वैसे ही जैसे एक बिरले सेठ की बात सब ध्यान से सुनते हैं
वही बात उसका नौकर बोले तो नाक भों सिकोड़ भुन्ते हैं
पुराने कहते थे किसी लड़की से ब्याहना है तो उसे सुबह उठते देखो
सुबह उसने लाली काजल न लगाया होगा, उसके असली रूप को देखो
सुबह सच्ची होती है, वो झूठा लाज शर्म नही करती
ढोंगी रात की तरह वो काला घूंघट ओडे नही मरती

Sunday, February 1, 2009

राम का भाई रहीम

राम और रहीम में क्या फर्क है
सिर्फ़ कुछ मात्राओं और लफ्जों ने किया बेडागर्क है
एक मुसलमान मस्जिद में हुंकार लगाता है
एक हिंदू मन्दिर में जयजयकार कर घर आता है
अरे दोनों तो फ़र्ज़ निभाते हैं, रहीम राम के घर रोज तो जाते हैं
फिर दोनों जंगली मुर्गों से लड़ते क्यों हैं ,
एक दूसरे की ओर तलवार ले बढ़ते क्यों हैं
कुरान, गीता में सर्वश्रेठ कौन?, ये कैसी लडाई है?
क्या दोनों धर्मग्रंथों ने मनुष्यता मिटाने की शिक्षा दिलाई है?
रोटी मुसलमान, भी खाता है, उसकी आँखों में भी आंसू आता है
हिंदू का रक्त भी लाल है, वो भी बच्चे को लोरी सुनाता है
क्यों ना किसी दिन हम मन्दिर मस्जिद से आगे सोचें
अपने मन के दुश्मन को क्यों न साथ साथ दबोचें नोचें
खुदा की कसम राम के घर ईद मनाई जाएगी
रहीम के घर से दीपावली पर, राम के घर मिठाई आयेगी
राम कुरान की आयतें सुनेगा, रहीम मीरा के भजन गायेगा
सतयुग सचमुच मेरे भारत में उस दिन ही आ जाएगा

मुर्खता का डब्बा

देखो देखो लोग अपना दिमाग बंद कर टीवी खोल रहे हैं
किसी दूसरे के विचार किसी दूसरे के तराजू में तोल रहे हैं
शाम ढलते ही बत्ती जला, दिमाग बुझा, मूर्खों का पिटारा खोल रहे हैं
किसने किसकी भगाई लुगाई की ख़बर, अपनी लुगाई से बोल रहे हैं
समाचारों से उपहास टपकता है, नेता जोकर से लगते हैं
नेताओं की छोडिये जनाब, प्रधानमन्त्री भी नौकर से लगते हैं
कितने मारे, मरे, घायल, बीमार हुए का रिवाज पुराना हुआ
मीडिया जगत अब पराई औरतों जैसी सनसनी खबरों का दीवाना हुआ
अगर ये सनसनीखेज है तो सोचिये असल सनसनीखेज क्या होगा
और यही निरंतर चला सब तो आने वाली नसल का क्या होगा
एक नेता की "बाईट" लेने ये कैमरा ताने कतार में खड़े हो जाते हैं
एक भूखे मरते किसान की ख़बर लेने ये हफ्ते बाद जाते हैं
महत्त्वपूर्ण क्या है? क्या ये हमें सिखलाएंगे, बतलायेंगे?
क्या हम ही दिमागी लल्लू पंजू हैं कि जो ये कहें मान जायेंगे?
शनि कौन सी करवट बैठेगा, आज काल सर्प योग किस को डसेगा
गर ये समाचार हैं, तो हमें ही एक दिन समाचार बना ये हमपर हंसेगा
मसालेदार सनसनी को सोच में न बसाओ, घटिया उपज आँगन न उगाओ
अमिताभ काटे बाल, नेता की जली खाल सी खबरें अपने घर ना घुसाओ
खबरें शनि, शाहरुख़, मंगल, कैटरीना से तंत्रों मंत्रों का सहारा नही लेती
वे तथ्य उजागर करतीं हैं, बंद कमरों से सनसनी को जनम नहीं देती
आज पिटारा खुलने के साथ साथ थोड़ा दिमाग भो खोलना
स्वयं समझ जाओगे कि ये उसका भोंकना है या बोलना

अर्धांगिनी रचना

रचनात्मकता कहीं से सीखी नही जाती
वो सहदेव सी माँ के पेट से ही सीखी सिखाई आती
जैसे एक नारी कुछ और सुंदर लगने को साज सज्जा करती है
ठीक वैसे ही रचनात्मकता भी श्रृंगार पसंद करती है
ये श्रृंगार कोई लाली, सिदूर या काजल का नही होता
न ही गहने चूडियों, नथ, पाजेब या बाली का होता
उसका श्रृंगार होते हैं वो व्यक्ति जो उसे निहारते हैं पुचकारते हैं
उसकी गहराइयों में जा उसको आवाज़ दे पुकारते हैं
रचनात्मकता एक शर्मीली नव्योवना सी होती है
उसको निहारो, उपहारों, बर्सावो चाँद की सैर करावो
वो स्वयं तुम्हारी हो तुम्हारे घर आ जायेगी
अपने को स्वयं समर्पित कर, तुम्हारी अर्धांगिनी बन जायेगी

Saturday, January 31, 2009

शतरंज बना खिलाड़ी

कोई बताये सच की जबान क्या है
हर जुबान पर झूठ है, सच की बिसात क्या है
जबान कृतिम शब्दों में उलझ कर रह गई है
उसकी सोचों की साँसे मुर्दों सी डेहे गई हैं
चलो बहुत नकारात्मक सोचा, सकारात्मक सोच बनाते हैं
किसी शमशान में फिर जाकर जीवन के दीप जलाते हैं
शायद इतनी बुरी नही है मेरी दुनिया,
इसको दुल्हन सा फिर सजाते हैं
इसकी सुहागरात में इसके बिस्तर, गुलाब की पंखुडियां बिछाते हैं
शायद दुख बहुत से सुखों को जनम देता है
वो बहुत लेता है पर हाथ खोल खोल बहुत देता है
दुख कुछ कुछ दानवीर कर्ण से होते हैं
ख़ुद ज़मीन को तहस नहस करके फिर उसमें फूल बो देते हैं
जीवन का चक्र कुछ ऐसा ही अजीब है
इंसान दूर रहकर भी वास्तविकता के कितना करीब है
ख़ुद अपने को शतरंज का मोहरा बनाता है
और बाद में शतरंज का खिलाड़ी कहलाया जाता है

इंसान का गीदड़

चने की झाड़ पर बैठ एक दिन गीदड़ ने धौंस जमाई
"मैं जंगल का राजा हूँ अब मैने इंसान सी अकल पाई"
किसी सयाने हाथी नें चिंघाड़ के झाड़ हिलाई
कददू सा टपका गीदढ़ धरती पर उसने अपनी टांग गंवाई
बन्दर बोला तू सयाना है तो टांग क्यूँ अपनी तुड़वाई
गीदढ़ हाय हाय कर बोला कल ही मैने एक इंसान के घर झोपडी बनाई
उसने मुझे चाँद तारों के सपने दिखलाये
एक दूसरे को मारने के हजारों गुर सिखाये
वो कहता था धरती पर राज करूँगा
जीतूँगा या सब को साथ ले मरूँगा
वो मुझे अपने कल कारखाने दिखाने साथ ले गया
क्या क्या उसकी मशीने करती हैं ये सब बताने ले गया
मैने उसकी बंदूकें तोपें देखी, हवा में उड़ने वाली मौतें देखी
जंगल की सुस्त जिंदगी से अलग, चीज़ें झटपट होते देखीं
वो लाँघ रहा था समंदर को, वो खोद रहा था पहाड़
वो कुदरत की बनाई तस्वीर पर जेहरीली स्याही से कर रहा था छेड़छाड़
उसने मुझको सोना चांदी दिया कुछ मंत्र दिए, कुछ तंत्र दिए
उसने मेरी झोली में अजीबोगरीब से कुछ कुछ यन्त्र दिए
वो बोला चल मिलबांट कर सबकुछ खाते हैं
जंगल का राजा बनाकर तुझे, हम सबको चट कर जाते हैं
बस यही सोच मैं यहाँ आज एलान करने आया था
मुझे क्या पता था, अपनी टांग गंवाने आया था
सयाने हाथी ने ये सुन अट्टहास ज़ोर से लगाया
सारे जानवर हंस पडे, और महाराज शेर की जय हो का नारा लगाया
शेर बोला तू गीदढ़ है गीदढ़ ही रह क्यों इंसान सा अपने को बनाता है
तू उसके पास सीखने गया जो कभी कभी हमसे सीखने आता है?

लंका की अयोध्या

मंदिरों में घंटियाँ बजने लगी हैं
शाम जरा सी ढलने लगी है
पंछी लौट चले अपने अपने घरोंदों में
हवा सर्द चलने लगी है
कहीं दूर मन्दिर में कोई गा रहा है
अपने दिल का राग भजन बना, और ख़ुद मेनका बन
भगवान् को रिज्हा रहा है
क्या मजे की बात है, दिन भर राक्षस बने उत्पात मचाओ
और शाम को मेनका बन घुंघरू बाँध हाथ जोड़ प्रभु के आगे खड़े हो जाओ
चबाना सबकुछ चाहते हो और मुह में दांत नही हैं
आंखें मूँद पाप करते हो, जैसे भगवान् की आँख नही है
तुम असल में राम की नही मेनका की साधना करते हो
हर पाप को छिपाते, श्रीराम से तुम न डरते हो
पहले जय सीताराम कह कह सबका अभिवादन करते थे
सीता को तुम अब भूल गए, पहले उनके नाम के मनके जपते थे
राम को भी एक दिन भूल जाओगे, या कहो राम तुम्हे भूल जायेंगे
फिर किसका नाम लेकर दूसरों का अभिवादन ले दे पाओगे ?
सिर्फ़ राम का नाम लेकर तुम्हारा काम न चल पायेगा
किसी दिन तुम्हारी लंका जलाने फिर कोई हनुमान आयेगा
रावन होते हुए राम न जपो वरना कागज का पुतला बन जल जाओगे
मेघनाथ, खर, दूषण, कुम्भकरण सी गति तुम पाओगे
राम सिर्फ़ एक नाम नही एक दिव्या ज्योत सी अनुभूति है
अच्छे करमों वालों से ही प्रभु राम को सहानुभूति है
इतना ही राम का नाम लेना है तो जा किसी भूखे को रोटी खिला
अपनी दया के प्याले से किसी प्यासे को पानी पिला
तुझे तब किसी पत्थर के घर में राम ढूँढने न जाना पड़ेगा
राम ही तेरे घर आ जायेगे, आवाज़ तो दे उन्हे आना ही पड़ेगा
दूसरों के दुःख दर्द बाँट तेरे ख़ुद के दर्द दूर हो जायेगे
फिर हर पेड़ पत्थर हवा बगीचे सड़कों पर तुझे राम ही राम मिल जायेंगे

सत्य के जीवाणु

कौन कहता है दुखों की हार नही होती
दुखों को भी दुख लगते देखा है मैने
जब जब दुखों ने अपनी झुग्गी झोपडी मेरे आँगन बनाई
अपनी कीताणुओ से मेरे घर के कोने कोने बीमारियाँ फैलाई
मैने सत्य रुपी जीवाणुओं से उनके कीटाणु लड़ाए
हर बार सत्य के जीवाणुयों ने उनकी चौखट विजय ध्वज फहराए
सत्य बेहेरूपिया होता है, झूठ का सिर्फ़ एक ही रूप होता है
वो छिप नही सकता ज्यादा दिन, सत्य छिपा रहकर ही मूक होता है
दुखों की नीयति कुछ ऐसी है की उनके ही कीटाणु उन्हें खा जाते हैं
दुखी होकर कुछ लोग सत्य को हमेशा पा जाते हैं
बस चुनिन्दा ही ऐसे लोग हैं जो ये सब कर पाते हैं
बाकी दुःख की धूप तले उसकी ही फसल बन पक् जाते हैं
कुछ ऐसे ही चुनिन्दा लोग मेरी मन की किताब में जमा हैं
कुछ राजा हैं कुछ रंक उसमें उन्ही में जीवन रमा है
ऐसे ही कुछ लोग कभी अपनी सेना बड़ी बनाएँगे
दुखों के मजबूत किले को तोपों से मार गिराएंगे

मेरे ग़मों के हुक्के

मेरे दुखों को मुझसे इतना लगाव हुआ
की वो मेरे घर चटाई बिछा कर बैठ गए
शतरंज की बिसात बिछाते, अपने हुक्के मेरे ही घर गुडगुडाते
कमबख्त उन्हे जलाने को कच्चा कोयला भी मुझसे ही मंगवाते
मेरी बनाई हुई तस्वीरों की जगह अपने शैतान की तस्वीर तंग्वाते
उनकी मेहमान नवाजी कर एक दिन मैं तंग आ गया
अपने माथे की सिलवटें देख मैं रंग दे बसंती गा गया
बस फिर क्या था, ज़ंग- ऐ- बदर हो गई
उनके और मेरे बीच में गुथाम्गुथी शुरू हो गई
न जाने किसने मुझे चरणामृत पिला दिया
मैने उन सबको धोबीपाट दे दे गिरा दिया
दुम दबा सरपट भागे वो, में पीछे पीछे और आगे आगे वो
उनके भागने से उड़ती धूल जब ओझल हो गई
मेरे पावों की चाल भी जब भोझिल हो गई
मैं लौट आया अपनी चौबारे में
सन्नाटा छाया था मेरे गलियारे में
कमबख्त वो यहाँ थे तो रौनक बहार तो थी
चाहे मुर्दों की थी पर सरकार तो थी
मैं फिर चल पड़ा उन्हे घर वापस लाने को
ढूडने निकल पड़ा मुसीबत को घर लाने के कोई बहाने को
लगता है मेरा दोस्ताना सा हो गया है इन मुह्जलों से
चलो अब की बार कुछ ज्यादा न बिगाड़ पायेंगे
कमबख्त इस बार अपनी हुक्कों में कोयला मुझसे तो न डलवायेंगे

बुद्धिमान इंसान

सुना है कोई विपदा ही इन्सान को इंसान बनाती है
ये भी सुना है की इंसान बुद्धिमान प्राणी है
तो फिर बुद्धिमान को विपदा का इंतज़ार क्यों रहता है?
वो क्यों अपनी दंभ रुपी मांद में छिपा रहता है
महंगे जूते चप्पल कपड़े लत्ते कार बंगले मोटरगाडी पाकर
गीदढ़ सी भभकी दिए फिरता है दूसरे गीदडों के घर जाकर
कोई आपदा आती तो आँखों में आंसू निकाल बैठता है
कुछ दिन कुछ वक्त तक मन्दिर में गिरजा मस्जिद गुरुद्वारा बना बैठता है
अपनी मोटरगाडी की शीशे के उस पार की जिंदगी को निहारता है
शीशा कभी गिरा कभी उठा अपनी ही बनाई बदबुओं को धिक्कारता है
कभी कोई अर्थी दिखे तो हाथ जोड़ खुदा को रिश्वत देता है
एक हाथ से अमृत पाता दूसरे से जहर देता है
कभी छाती में दर्द होता तो हकीम वैध को पुकारता है
दूध पिलाती छातियों को देखो वो कैसे निहारता है
इसे कोई न समझा, न ख़ुद समझ पायेगा
बुद्धिमान प्राणि है, एक दिन इसे ख़ुद समझ में आ जाएगा
ये तब समझेगा जब इसका सब नष्ट हो जाएगा
अफ़सोस तो ये है की अपने साथ साथ ये सबको नष्ट कर जाएगा
ये बुद्धिमान प्राणी है भला इसे कौन समझायेगा
इसकी जटिल सी बुद्धी में भला गंवार सरल सत्य क्यों आयगा ?

Friday, January 30, 2009

बदलता मौसम

कसाई सी किस्मत देखो तलवार लिए सामने खड़ी है
उसकी तलवार का एक वार ही काफ़ी होगा
संभालो संभलो, देखो मृत्यु तुम्हारे सामने खड़ी है
सूख जायेंगे नदिया नाले, रेगिस्तान बन जायेंगे समंदर
जिन जंगलों में जीवन है अब तब होगा मौत का बवंडर
कल पुर्जे कुछ काम न आयेंगे, मिटटी से निकले मिटटी ही बन जायेंगे
एक एक पेड़ की चीख को ध्यान से सुनो कुछ कहता है
उन फूल पोधों पत्तों और तनो में एक जीवन रहता है
हमारे घर के बुजुर्ग सा वो हमसे पहले इस धरती पर आया
उसने ही हमारा विष पीकर हमको अमृत पिलवाया
समंदर को ही देख लो, कभी कभी ही रूठता है
हमारे ऊपर का उसका गुस्सा हमपर ही तो टूटता है
उसके घर में सेंध लगा रहे हैं,
बिन बुलाये मेहमान से उसके घर जा रहे हैं
उसकी नदिया रुपी बहनों को अपनी वासना का शिकार बनाते हैं
और फिर उसमें कुछ मुर्दे बहाकर राम नाम की गुहार लगाते हैं
मिटटी से निकला, मिटटी में जाएगा,
तू बता तू और कितना मिटाएगा
कोई बचेगा ही नही, तो अपने मनघडंत शौर्य की गाथा किसे सुनाएगा
जितना उड़ता है हवा में, धरती में चल ही न पायेगा
तेरे अपने शायद न होंगे तब, कुदरत तो फर्ज निभाएगी
तेरे शरीर को शायद आग देने वाला उस वक्त हो न हो
मिटटी अपना फ़र्ज़ निभा तुझे मिटटी बना, अपने घर तो ले ही जाएगी
हवा, धरा, जल, अन्तरिक्ष जहरीले कर दिए तूने
अब कोई शिव विष पीने न आयेगा
तेरे बुरे कर्मो के बदले कोई अपना कंठ नीला न कराएगा
कुछ पेड़ पौधे और लगा जीवन कुछ और तू पा जाएगा
वरना विलुपत होती प्रजातियों में तेरा नाम भी जुड़ जाएगा

Thursday, January 29, 2009

कुछ लोग

आज की तेज रफ़्तार जिंदगी का ये आलम है
कि सुबह के गम शाम को पुराने हो जाते हैं
कुछ लोग दुनिया में ऐसे ही पैदा हो जाते हैं
एक नया इतिहास रच ख़ुद इतिहास बन जाते हैं
कभी मन मन रो लेते, कभी सैकडों होठो की हँसी बन जाते हैं
कुछ लोग दुनिया में ऐसे ही पैदा हो जाते हैं
किसी जाने अनजाने के गले मिल उसके सपने थपथपाते हैं
अपने घर की मय्यत भूल दूसरे घर ईद मनाते हैं
कुछ लोग दुनिया में ऐसे ही पैदा हो जाते हैं
सवालों के मतलब सिखा ख़ुद सवाल बन जाते हैं
सुबह के ग़मों को लोरी सुना ख़ुद थक कर सो जाते हैं
कुछ लोग दुनिया में ऐसे ही पैदा हो जाते हैं
हर टूटी डोर में गाँठ बन ख़ुद को बाँध जाते हैं
हर चौराहे की अंगुली बन सबको सबका पथ दर्शाते हैं
कुछ लोग दुनिया में ऐसे ही पैदा हो जाते हें
कभी शीशे में ख़ुद उतर अपनी पहचान गवांते हें
कभी सैकडों सपने थाली में परोस, ख़ुद भूखे सो जाते हें
कुछ लोग दुनिया में ऐसे ही पैदा हो जाते हैं
बेलगाम जिंदगी के पाँव में सांकल दाल ख़ुद को हथकडी लगाते हें
दुखती टीसते घावों में मरहम लगा ख़ुद बीमार बन जाते हें
कुछ लोग दुनिया में ऐसे ही पैदा हो जाते हैं
मन के चरखे से मंजिलें बुन सबकी पगडण्डी बन जाते हैं
हर हाथ की उंगली को थाम पकड़ उसके ह्रदय तक जाते हें
कुछ लोग दुनिया में ऐसे ही पैदा हो जाते हैं

एक शराबी की चिढ

आज कुछ अलग ही खुमारी है
वो लम्हे वो जाम वो दाल बुखारी है
पीना चाहते थे एक और जाम,
कमबख्त नशे ने अडंगी दे प्याला ही गिरा दिया
नींद तो कैसे आनी थी आज तो साला नींद को भी पिला दिया
अब सोचते हैं की मैखाने को रुखसत करें
साला कुछ तो है नही करने को, अब कुछ तो करें
कहीं ऐसा न हो की कंही सरकार ठेका ही बंद करा दे
मेरे नशीली अरमानो की चिता बीस पैसे की माचिस से जला दे
जिन्हे जलाना था उन्हे तो हार पहना रही है
साली दो टके की सरकार देखो कैसे मर्सडीज में जा रही है
मारे हुवो का मातम जाम पीकर मना रहा हूँ
सारे टोपी वाले हिजडों की कबर खोद खोद बना रहा हू
मैने बस चार जाम पीकर ईद मना ली
इन्होने तो खून पी मेरे देश की इज्ज़त लुटवा दी
सोचता हूँ आज कुछ कर जाऊँ
टूटे हुए स्कूटर में बम रखकर इन सालों के घर घुस जाऊँ
पर साला जितने का बम उतने में तो हजारों जाम आयेंगे
मेरे एक के मरने पर तो ये टिद्धियों की तरह सैकडों पैदा हो जायेंगे
चलो ऐसे ही मन की भडास निकालते हैं
एक जाम फालतू पीकर सालों की मय्यत निकालते हैं

किलकारी

कुछ ख्यालों की स्याही ला दो
कुछ विचारों को पंख लगा दो
तख्ती है अभी खाली खाली सी
उसपर मेरे बच्चे की तस्वीर बना दो
लिख पाउँगा तभी मैं फिर से
मेरे घर में फिर वही किलकारी ला दो
हंसुगा हंसाऊंगा फिर से मैं
मन में बसे बच्चे को भिगाने के लिए, एक पिचकारी ला दो
सोना नही चाहता क्यूंकि उसे आज लोरी सुनानी है
मेरी नींद को सुलाने के लिए एक खुमारी ला दो
फिर से लिख पाउँगा तभी में
मेरे घर में फिर वही किलकारी ला दो
आसमा से तारे परोसने हैं बाकी
कुछ परियों से मुलाक़ात करानी है उसकी बाकी
बादलों से पानी की बूँदें तोड़ तोड़ कर लानी हैं
उसके सिरहाने गुलाब की पंखुडियां भी तो बिछानी हैं
बनिए से शहद खरीद उसकी नींदों में मिलानी हैं
होली पास आ गई, उसके सपनो को थोड़ा रंग लगा दो
फिर से मेरे घर में वही किलकारी ला दो
मेरी बिटिया रानी रूठी क्यूँ है मुझसे
उसको मनवाने वास्ते एक फुलवारी उगा दो
फिर से मेरे घर उसकी किलकारी ला दो

आज मन है

आज कुछ नया कर जाने का मन है
बादलों के उस पार अंगीठी जलानी है
चिडियों से कैद पिंजरे को आजाद करने का मन है
किसी मछुआरे से मांग उसकी पतवार चलानी है
किसी को लोरी सुना ख़ुद सो जाने का मन है
आज हवा में भी किसी की तस्वीर बनानी है
अन्तरिक्ष में आज पतंग उडाने का मन है
किसी बच्चे सी कूदफांद लगानी है
किसी दुखियारे अजनबी के गम भुलवाने का मन है
तितलियों से कुछ रंग उधार मांगने हैं
छोटी सी बात पर किलकारी लगाने का मन है
मदारी के बन्दर को भाग जाने की तरकीब सिखानी है
माँ की प्यार में पकाई वो दाल और बासी रोटी खाने का मन है
आज कुछ पुरानी किताबों की धूल हटानी है
बागीचे से कुछ आम आज चुराने का मन है
गली के आवारा जानवरों को आज पुचकारना है मुझे
सरपट दौड़ती दुनिया में आज थम जाने का मन है
राख से महल बनाने हैं मुझे, बारिश के पानी में चपाके लगाने हैं मुझे
आज ख़ुद पर ही मर मिट जाने का मन है
बहुत सुरीले गीत सुने जीवन में, आज कुछ बेसुरा सुनाने का मन है
दूसरों को पाने के लिए दोडते रहे जिंदगी भर
आज ख़ुद को ढूंढ कर पा लाने का मन है
मुश्किलों को सीख देने की जुगत लड़ानी होगी
आज मन के मटके से जिंदगी पी और प्यास बुझाने का मन है

शहर का किसान

मुश्किल ये है की सबकुछ कितना आसान है
फिर भी तू आज कितना परेशान है
ख़ुद ही ख़ुद से भागता है, जाग कर भी न जागता है
कच्चे धागों की रस्सी से किस्मत खूंटे में बांधता है
कोठी बंगले तूने खूब बनाये, पर घर है क्या तू ना जानता है
मोटर गाड़ी में चलने वाले, कुछ पग चल तू क्यों हांफता है
महंगे भोजन करने वाले, माँ की पकाई दाल फिर क्यूँ मांगता है
अपनी जग को वातानुकूलित कर, उन पहाडों की ओर क्यूँ भागता है
तूने जो चाहा सब पाकर भी ख़ुद को खोया क्यूँ मानता है
हर बारिश के मौसम में तू बच्चा बन कर क्यूँ नाचता है
तूने जिंदगी आसान करने की मशीनें खरीद अपनी मुश्किलें और बढाई
तूने नींद बुलाने भगाने में न जाने कितनो की नींदें चुराई
अब वापस चल वो ताल बुलाते हैं, वो गुलाबी बुढिया के बाल बुलाते हैं
तेरी रोटी कोई और न खायेगा,
तेरा घर तेरी नींदों की तरह कोई और चुरा न ले जाएगा
अभी वक्त पर संभल, शाम तक घर पहुँच जाएगा
तुझे नुक्कड़ पर लेने तेरा बूढा बाप ख़ुद लाठी टेकता आयेगा
वो गलियाँ थोडी सी बदल तो गई हैं,
मगर ईख के खेत की महक नही गई है
कुछ हुक्कों की गुड्गुडआहट में सांसे, अभी भी चल रही हैं
कुछ बूढी होती आंखे अभी भी बर्तन पर मांझने को राख मल रही हैं
आज तू सबकुछ खो अपनों और आप को पा जाएगा
गाँव का एक और बेटा शहर छोड़ अपने खेतों में फिर फसल उगायेगा
कभी राशन की दुकान की कतार में खड़ा हो मुट्ठी भर अनाज लेने वाला
फिर से पूरे मुल्क को रोटी खिलायेगा