Tuesday, October 20, 2009

वक़्त की जड़

रोज रोज यादें निचोड़ता हूँ
हर देखे हुए सपने की धूल हटाता हूँ
कभी उन यादों के बाल बहाता, और कभी उन्हे सहलाता हूँ
बच्चे की तरह उन्हे लोरी सुला खुद उनमें सो जाता हूँ
मन की बावली से प्यास नहीं बुझती, तो कुछ आंसू पी लेता हूँ
तेरी उन यादों की अंगुलियाँ पकडे कुछ कदम और चल लेता हूँ
बड़ी शातिर दुनिया है, सुना है साये भी चुरा लेती है
इसीलिए तुझे मन में लिए घूमता हूँ, और सांकल कस देता हूँ
वक़्त और मन बड़े भारी है, इसीलिए कई बार हांफ सा जाता हूँ
कुछ साँसे ज्यादा जिंदगी से उधार मांग आता हूँ
वक़्त का क्या है, उसे तो काटना ही होगा
इसीलिए उसे और बड़ा करने को उसकी जड़ में पानी दे आता हूँ

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