Monday, February 16, 2009

ध्वज

ख्यालों के कलेवे सपनो को जीमाता जाऊं
सपनों के निवाले खा आगे बढ जीता जाऊँ।
जीने की चाह को हीरे सा कठोर बनाऊं,
कठोर सी राहों में आशाओं का गलीचा बिछाऊं.
बिछे हुए सपनों को प्यार की नींद सुल्वाऊं,
नींदों में शहद घोल उनको मीठा कर जाऊँ.
कभी धूप पी लूँ तो कभी छाँव निगल जाऊँ।
जलते मन को बावली बावली जा बुझाऊं,
धमनियों का खून पसीना बन न पिघले।
सूखती साँसों पर आशा की गीली पट्टी लगाऊं,
शहर की कोलतारी सड़कों पर अपनी सपनो की छाप छोड़ जाऊं।
मन की लगाम खींच कभी इधर कभी उधर दौडाऊं,
प्याऊ बन हर प्यासे के खेत सींच फसल उगाऊं।
खोखले तन मैं आशाओं की रणभेरी बजवाऊं,
मन तन और प्रयत्न के युद्ध में, ख़ुद झंडा बन शत्रु के किले पर लहराऊं।

Friday, February 13, 2009

अध्यापक

बचपन को छड़ी और थपथपाहट से संवारता अध्यापक,
कभी मार्गदर्शक तो कभी माँ बाप सा डांटता अध्यापक।
जीवन रुपी जटिल मार्ग पर, ज्ञान रुपी सेतु बनाता अध्यापक,
मष्तिष्क के कोरे पन्नों में ज्ञान के अक्षर सजाता अध्यापक।
कभी महात्मा गाँधी तो कभी सरदार पटेल बन जाता अध्यापक,
लडखडाते क़दमों को चलना सिखाता अध्यापक।
माँ की कोख से जन्मे बच्चे को आदमी बनाता अध्यापक,
बूढे बाबा की लकड़ी सा, चूल्हे में बसी गर्मी सा अध्यापक।
कभी अन्धकार में दिए सा कभी प्यास में पानी सा अध्यापक,
अपनी थप्पडों से, अपनी छड़ी की मार से लाखों आसीसें देता अध्यापक।
चाँद, विज्ञान, विमान, अंतरिक्ष, यान समझाता बतलाता अध्यापक,
ऊँचे आकारों और विचारों को धरती पर चलवाता अध्यापक।
दूर खड़ा छिपा मेरी प्रगति को निहारता मेरा अध्यापक ,
मेरा पिता, मेरी माँ, मेरा गुरू मेरा अध्यापक।

Sunday, February 8, 2009

दीमक इंसान

दीमक को कभी देखा है ध्यान से ?
कैसे बड़े बड़े पेड़, दरवाजे, कुर्सी, मकान निगल जाती है।
एक छोटा अदना सा प्राणी, जो शर्मीला बन छिपा रहता है,
अपनी मेहनत से बनाये बिल में।
कितना बौना बना देता है इंसान रुपी दैत्य को।
अणु बम बगल में लिए फिरता ये इंसान,
कैसे पिचकारी में जहर लिए फूं फूं करता फिरता है,
इस अदने से प्राणी को मिटाने के लिए।
अदना कौन है, ये अब कोई इससे पूछे,
दुनिया भर में अपनी डींगें हांकता है,
घर आकर दीमक के आगे हांफता है।
एक अदना प्राणी किसी सर्वोच्य के आगे,
कितना बौना बन मिटटी फांकता है।

Friday, February 6, 2009

राम या रावण


जलते रहो, चलते रहो
धधकते रहो, उबलते रहो,
संभालते रहो, बदलते रहो
क्योंकि यही नीयति है.
शिकायत किससे? ख़ुद से?
नही तो और किससे ?
कौन बदलेगा तुम्हारा पथ?
कौन उबालेगा तुम्हारी सुबह?
जीवन के सिर्फ़ दो ही जवाब होते हैं.
हाँ या फिर ना.
राम या फिर रावण.
सभी राम तो नही हो सकते
और सभी रावण भी.
तो दोनों में से किसी को तो चुनना होगा.
पथ वो ही तय करेगा.
राम या रावण.
मन रुपी राम या रावण में ही सब उत्तर हैं . . .

Thursday, February 5, 2009

उम्मीदों का नेवला

गौर से देखो तो कोई इंसान भिखारी नही होता,
उसके कटोरे में उम्मीद के चंद सिक्के जरूर खनखनाते हैं।
कहीं भी ही, कैसा भी हो, कोई भी हो, किसी भी हालात में हो ,
उम्मीद का नेवला पाले रखता है, चाहे दुखों के सांप कितने फनफनाते हों।
उम्मीद पर ही तो जिंदगी कायम है लोग कहते हैं।
फिर उम्मीद ही कई दफा क्यो टूट जाती हैं ?
"जो होगा अच्छा होगा, तू फिक्र न कर मेरे यार"से
शब्द बार बार क्यूँ जुबान पर आते हैं ?
तू ख़ुद एक उम्मीद है ये सबसे पहले समझ ले दोस्त,
उसके बाद तुझसे बंधी उम्मीदें हैं, और ....
उन उम्मीदों की भी आगे बहुत सी उम्मीदें हैं।
ये सिलसिला बहुत लंबा है।
जब भी तेरी उम्मीदें टूटें, तो कटोरा जरा बजा देना,
चंद सिक्के जर्रूर टपक जायेंगे उसमें देर सबेर।
उम्मीदें गर भीख में मिलें तो दुआएं कहलाती हैं,
वो तुझे कुछ और पुल, नदियाँ और पहाड़ पार करा जाती हैं।

Wednesday, February 4, 2009

तब से अब

मुझे पता ही न चला पावों के नीचे से धरती कब खिसकी
मैं तो आसमां में पींगे लगा रहा था।
जब नीचे आया तो धरती न थी,
मैं तो पंख कटा वापस आ रहा था।
कभी कुछ कह तो दिया होता तुमने,
मैं तो कबसे ज़ुबां लड़ा रहा था।
तुमने कहा भी तब बड़ी मुश्किल से,
जब मेरी ज़ुबां पे ताला लगाया जा रहा था।
कोई सुनता न सुनता,
स्वयं अज्ञानी हो प्रवचन सुनाता जा रहा था।
संत मेरे घर कब आया, पता न चला,
मैं तो किसी और घर सेंध लगा रहा था।
सब कुछ थमा जमा था तब,
जब में दौड़ा चला जा रहा था।
जब सब दौडे, उनके पीछे ,
मैं भी दौड़ा चला जा रहा था।
प्यास भी थी और पानी भी,
मैं तो कटे हाथों को सहला रहा था।
अब प्यास है पर पानी नही,
मैं तो मुहं से लोटा उठा रहा था।
अब पानी था, पर प्यास न थी,
फ़िर क्यों वो गंगाजल पिला रहा था।
अब न पंख थे, न पांवों, न हाथ, न प्यास
मैं तो गंगा में बहा चला जा रहा था।
जीवन भर बहलाता रहा ,
अब अपने को बहा ला रहा था ।

Tuesday, February 3, 2009

मेरे देश का शेर

सर पर पगड़ी पहने वो भीड़ में भी अलग दिख जाता है।
हाथ में कडा, सर पर लम्बे केश, बगल में कटार लगाता है।
हर वक्त वो मुस्कुराता रहता, कोई ना कोई गीत गाता रहता,
उसका न कोई आने का समय, न किसी को जाने का पता रहता।
उसके गौरव से पुलकित चेहरे पर हर मौसम पसीना बहता।
बिना नागा हर मौसम वो सुबह सुबह गुरुद्वारे जाता, वहां झाडू लगाता,
गुरु को शीश झुकाता, लोगों के जूते उठाता, गुरु का लंगर चख्वाता।
चाहे हिंदू हो, ईसाई या फिर हो वो मुसलमान,
किसी ना किसी के काम वो जीवन में एक बार जरूर आता।
ख्वामखाह के जुलूसों और जलसों से उसे परहेज है,
झट पैसा कमाने की उसकी व्यापारिक विद्या की बुद्धि बड़ी तेज है।
ऐसे किसी भी जुलूस में वो शायद ही नज़र आयेगा,
गर आया भी, तो छोले कुलचे बेच भूखी भीड़ को, घर कमा पैसे ले जाएगा।
शायद ही ऐसा इंसान देखोगे जो अपने ही ऊपर बनाये चुटकुलों पे हंसता है,
जरा सी मुसीबत उसके दोस्तों परिवार पर आयी नही, वो फ़ौरन कमर कसता है।
किसी महकमें में ये मंझला या उंचा अधिकारी बना, शेर सी मूंछों पर ताव देता नज़र आयेगा,
एक ही कौम है अकेली इसकी जिसमें, कोई भीख मांगता नज़र न आयेगा
हर महफिल में सबसे पहले नाचने वाला ही वो होता है,
ढोल की एक थाप पर ही उसका भांगडा शुरू होता है।
किसी से कोई जुगाड़ ना बन पा रहा हो, उसके पास चले जाओ,
उसके पास हरदम कोई न कोई जादू का पिटारा होता है।
चाहे समंदर हो, बर्फ की पहाडियां हों या हो जलता रेगिस्तान,
कहीं भी वो जरूर दिखेगा चाहे विलायत हो या बलूचिस्तान।
चाँद पर भी कहतें हैं उसने कोई ढाबा खोला है,
अब ये सच है या झूठ, मुझसे तो किसी ने ये बोला है।
विभिन्न रूपों में ये शख्स हमारे आसपास ही रहते हैं,
प्यार से हम लोग इन्हे सत्श्री अकाल "सरदारजी" कहते हैं। ,

प्रिय मित्रों

कल मैने दो कवितांए लिखि जो एक दूसरे से बहुत जुड़ी हैं। उन्हे लिखते समय मेरा स्वयं का मन भारी हो गया था और मैं सोच रहा था की इनको मैं लिखूं न लिखूं। मैं नकारात्मक सोच में विश्वास नहीं रखता और यही कोशिश करता हूँ की कुछ प्रेरणादायी ही लिखूं। हम सब लगभग एक जैसे से ही हैं, फर्क सिर्फ़ इतना है की हम अपनी ही बनाई इंद्रजाल सी दुनिया में व्यस्त रहते हैं और वास्तविकता की ओर काला चश्मा पहने देखते हैं। यथार्थ तो यथार्थ ही रहेगा, उसे मैं या आप कोई भी नही बदल सकता। मेरा हमेशा ये प्रयत्न रहेगा की मैं कुछ ऐसा लिखूं जो आपके मन को सोचने पर विवश करे और आपके होठो पर मुस्कान आ जाए। परन्तु कभी कभी कुछ ऐसा मेरा लिखा हुआ पढो जिससे आप दुखी हो जायें तो मुझे क्षमा कर दीजियेगा। यकीन मानिये मुझे आपके जीवन में दुःख घोलने का कोई हक़ भी नही और ना ही मेरी ऐसी कोई इच्छा है। पहली कविता पढ़ने से पहले कृपया पहले "झुग्गी झोपडियों में एक दिन" अवश्य पढ़ें, उसको पढ़ने के बाद "साफ़ कालोनी का एक घर" और सबसे आखिर में "कंप्यूटर से निकला दोस्त" क्यूंकि ये तीनों कवितायें एक दूसरे से जुड़ी हैं। कुछ में, जो हो रहा है वो व्यक्त है, और आखिरी में वो जो हमें करना चाहिए. आपकी प्रतिक्रियाओं की प्रतीक्षा मुझे रहेगी। कृपया दिल खोल कर लिखें।

कंप्यूटर से बाहर निकला दोस्त

चलो चलो आज अपने कंप्यूटर में बंद सब दोस्तों को धौल जमाते हैं,
उनके चिप, मदरबोर्ड, तारों,से जकडे शरीर को आजाद कराते हैं।
बहुत हुआ हाय, हेल्लो, टेक केयर, सीयू,
उनसे उनके ही घर बिना बताये मिलने जाते हैं।
अरे काम का क्या है, ये तो कभी न रुकने वाला पहिया है,
ये ना किसी की बीवी, महबूबा, भैया या फिर मैया है।
कहीं से भी किसी भी वक्त ये बिच्छूघास सा उग आता है,
कभी गुर्राता, कभी डराता, कभी धौंस जमा धमकाता है।
बेशरम कहीं का, जब देखो मुंह उठाये हमारे ऑफिस घर घुस जाता है,
इसकी बेशर्मी तो देखो, बार बार भगाने पर भी ढीठ सा बत्तीसी दिखाता है.
यारों आज साले #*%$#$@%#$# को अडंगी दे गिरा ही देते हैं,
इसके मुंह में पूरी व्हिस्की की बोतल जबरदस्ती उन्डल्वा ही देते हैं।
कुछ दिन ये अपना बदकिस्मत चेहरा दिखा न पायेगा,
बेशरम तो है ही ये, नशा उतरते ही देर सबेर वापस आ ही जाएगा।
यारों तब तक तो गले मिल कुछ बातें कर ही जाते हैं,
बहुत दिन बीत गए, आओ चलो आज उसी मोटू के घर जाते हैं।
साला अब तो वो और मोटा हो गया होगा,
उसका पायजामा कुछ और छोटा हो गया होगा।
छोटी छोटी डेडलाईनें धीरे धीरे अपनी आप लम्बी हो जाएँगी,
कुछ जाम पिला देंगे उन्हे, साली वो भी टल्ली हो जाएँगी।
डेडलाइन का काम कभी न रुकता है,
हर डेडलाइन, काम बढ़ाने का ही एक घटिया नुस्खा है।
चलो आज कंप्यूटर से निकल हम असल दुनिया में मिलते हैं,
चलते हैं वहां, जहाँ कुदरत के असली फूल खिलते हैं।
वादा करते हैं, घर एक दूसरे के हर पर्व पर जायेंगे,
देसी हैं हम देसी ही रहेंगे, विलायती जामा पहन भी भांगडा पायेंगे।
दीवाली दशहरे, होली साथ साथ मनाएंगे,
दोस्त हैं हम, भला अपनों के नही, तो किसके पास जायेंगे?

Monday, February 2, 2009

एक साफ़ कालोनी का घर

एक झुग्गी झोंपडी की कहानी से प्रेरित हो
मैं लिखने चला एक साफ़ कालोनी के किसी घर की कहानी
जो कहीं मेरे ही घर के पास था
कोई रहता था वहाँ, जीवन बहता था वहाँ, वो बड़ा ख़ास था
सुबह सुबह कोई बाहर से आकर चाय काफ़ी की केतली चढाता
जूस निम्बू पानी बनता, कोई व्यायाम करने मशीन पर चढ़ता
नाश्ता बनता, अखबारें आती, स्कूल की बस बच्चों को स्कूल ले जाती
सूट बूट टाई जूते पहन कोई निकलता ऑफिस की ओर
टिद्धीदल सी भरी सड़क में फँस जाता, जहाँ मचा शोर ही शोर
दिन भर ठंडे ऑफिस में, होड़ की गर्मी झुलसाती
शाम तलक आंखें मुंदने लगतीं, वापस घर जाने की बारी आती
सुबह का वही आलम सड़कों में दोहराया जाता
किसी तरह से कोई वापस घर लौट कर आता
कितनी सुकून की जिंदगी है, घर में राशन ,हर वक्त बहता पानी है
क्या यही साफ़ सुथरी कालोनी के उस घर की कहानी है?
यहाँ किसी बच्चे की नाक साल में सिर्फ़ एक बार बहती है
माँ हर दिन बच्चे को कुछ टोनिक देती रहती है
शराब पी यहाँ उस शराबी की तरह कोई गंदे गीत नही गाता
यहाँ त्योहारों पर भीड़ न लगती, न कोई रोज मिलने आता
कंप्यूटर में बंद दोस्त हैं कंप्यूटर में ही मिल पाते हैं
एक दूसरे का हाल कुछ बटन दबा एस एम् एस भेज पूछ जाते हैं
दीवाली होली भैयादूज दशहरा, पोंगल सिर्फ़ एक छुट्टी के नाम हैं
एस एम् एस जिंदाबाद है, अंगुली दबी, संदेश गया, बस कितना आसान है
यहाँ सपने सच होकर बाद में अपनों को छोड़ जाते हैं
पुराने दोस्त सुदामा की तरह फिर लौट नहीं आते हैं
यहाँ ग़म बस अपनी आवाज निकाल नहीं पाते हैं
कुछ पाने के लिए यहाँ तुम सीढ़ी चढ़ते जाते हो
बाद में दूसरों को अपने ऊपर चढाने की सीढ़ी ख़ुद बन जाते हो ,
यहाँ हँसी होठों पर कुछ जाम लेने के बाद ही आती है
कश पे कश लगते रहते हैं, सीढीयाँ भारी लगने लग जाती हैं
एक दिन उन्हें अस्पताल ले जाती एंबुलेंस भी
उस टिद्धियों से भरी सड़क पर फँस जाती है
भरपूर राशन और हमेशा बहते पानी वाले उस घर से
एक अर्थी करंट की चिता की ओर प्रस्थान कर जाती है
कोई विधवा रात को अकेली खिड़की के पास खडे हो अकेले आंसू बहाती है
साफ़ कालोनी के उस घर के शांत माहौल के,
किसी कमरे की बत्ती, हमेशा हमेशा के लिए बुझ जाती है

झुग्गी झोपडियों में एक दिन

आज उन गली गलोंचों में मैने जीवन उगते देखा
उसको फलते फूलते, दोडते रुकते पकते देखा,
वे वो गलियाँ थीं जो कालोनी के घरों के चूल्हे जलाती हैं,
उनके घर कपड़े बर्तन फर्श मांझ धो, वापस अपनी गंदे में आ जाती हैं।
साफ़ सुथरी कालोनियों में कभी मैने होली इतनी उल्लास से मनते न देखि,
एक अजनबी भीड़ किसी और अजनबी के घर इतनी जमते न देखी।
वहाँ कूचे कूचे पर चौपाल थीं, जो हर इंसान को दूसरे से मिलाती थी,
शहर की कन्नी काटती भीड़ सी वो भागी न जाती थी।
वहां आंसू पीकर लोग प्यास बुझाते, नलकों में क्यूंकि पानी न था,
फिर भी काम पर जाते चूँकी उनका कोई सानी न था।
बच्चे धूल मिटटी में खेल रहे थे,
डॉक्टर वैज्ञानिकों के दावे गन्दी नालियों में उंडेल रहे थे।
किसी की नाक बह रही थी तो कोई पेंचा भिड़ा रहा था,
एक किसी साफ़ कालोनी वाले बच्चे को नाक चिढा रहा था।
औरतें पानी भरने के लिए एक दूसरे से लड़ भिड रही थी,
एक बूढी दादी किसी शराबी की गन्दी गालियों से चिड रही थी।
दोपहर तक सब ठीक ठाक सा हो गया,
वो शराबी भी गहरी नींद सो गया।
शाम को एक और नया आलम था,
कोई किसी का भाई तो कोई बालम था।
सब मिल बाँट खा रहे थे, दिन के दुखों को ताडी पी डूबा रहे थे।
दूर उस साफ़ कालोनी के मकान की किसी खिड़की पर खड़ा कोई रोता था,
उसके पास सब था, मगर कोई ना था।
उसके पास रोने का सिर्फ़ यही एक मौका था।

काली हुई नदियाँ

कल बच्चों के एक स्कूल में चित्रकला प्रतियोगिता देखी
नन्हे नन्हे बच्चे कल्पनाओं की उड़ान लगा रहे थे
कुछ हाथी घोडे, कुछ नदिया, पहाड़ आसमान बना रहे थें
पहाडों को हरे की बजाये भूरा बना रहे थे
आसमान व नदियों को भी नीला न कर काला बना रहे थे
उनकी आँखें जैसा देखेगी भला वैसा ही तो बनाएगी
उन नन्हों को क्या पता की ये दुनिया क्या थी, हुई,व हों जायेगी
कभी हम भी तो उन नन्हों से थे जब पहाड़ हरे भरे थे नदियाँ नीली थी
उनपर बसंत में गिरे पेडों की पत्तियाँ पीली थी
आज ऐसा क्यों की हमारे बच्चों को उनके वास्तविक रंग पता नहीं
अभी तो कुछ बचाखुचा है, बाकी, कल होगा क्या, ये भी पता नहीं
खाली पर्यावरण बचाओ के नारे लगाने से कुछ ना होगा
एक हाथ से ले एक हाथ से दे वाला नियम ही यहाँ लागू होगा
ले तो बहुत लिया हमने अब क़र्ज़ उतारने की बारी है
बताओ अपनी दुनिया को इस बार फिर बचाने की हमारी कितनी तैयारी है

बन्दर जलाए नेता

ये नेता रुपी कीटाणु हर जगह मिल जाता है
बैलगाडी के लायक नही फ़िर भी मर्सडीज में जाता है
हमारा ही दिया खा फिर हम पर ही गुर्राता है
हमारे घर में चोर सी सेंध लगा चुनाव के पर्चे फ़ेंक जाता है
मंच मिले तो भोंकता है, हमारे ऊपर उल्टे सीधे कानून थोपता है
पर अपने बच्चों को दूसरों का, बलात्कार करने से नही रोकता है
कभी फौजी की वर्दी बेच आयेगा, कभी तोपों का कमीशन खायेगा
स्विस बैंकों के अपनी खातों में कन्हैयालाल की कमाई जमा कराएगा
पीएगा मिनेरल वाटर, और गावों गावों पानी पहुचाने के वादे करेगा
हमारे टैक्स के पैसे से अपने नाती पोतों के मोबाइल बिल भरेगा
नाटकबाजी में तो ये भांडों को भी मात देता,
अपने सगे भाई की सुपारी किसी और "भाई" को देता
हर कहे वाक्य को नकारता, हर पार्टी फंड में चंदा देनेवाले को पुकारता
हर सच्चे अधिकारी को सुकरात की तरह ज़हर दे मारता
इसकी लंका में राक्षसों की भरमार हैं,
सफ़ेद टोपी पहने ये जनता का पहरेदार है
नेताजी अब सुधर जावो, हवा कुछ सुहानी चली है
नई पीड़ी अंडे से बाहर निकल झंडे फहराने चली है
कहीं ऐसा न हो तुम भोंकते रहो और कोई पीछे से च्यूंटी लगा जाए
कोई पुराना वानर आ चुपके से तुम्हारी लंगोट सी लंका में आग लगा जाए

सच्ची सुबह

सुबह सुबह जागो तो दुनिया असल रूप दिखाती है
दिन में तो वो घूंघट ओडी स्त्री सी अपना रूप छिपाती है
कभी दोड़ते दोड़ते अचानक थम जाओ, सबकी चाल देख पाओगे
किसकी कितनी गति और अवगति है, सब जान समझ जाओगे
दौड़ते समय जो आंखों से बच जाती हैं
थम कर देखने से वो बारीकियां साफ़ नज़र आती हैं
जमघट हो आसपास, तो अपना पराया दिखाई नही देता
विपदा के वक्त कहते हैं साया भी साथ नही देता
विख्यात हो प्रशंसा सभी पा जाते हैं,
उनके ऊटपटांग शब्द भी तब एक सिद्धांत बन जाते हैं
ठीक वैसे ही जैसे एक बिरले सेठ की बात सब ध्यान से सुनते हैं
वही बात उसका नौकर बोले तो नाक भों सिकोड़ भुन्ते हैं
पुराने कहते थे किसी लड़की से ब्याहना है तो उसे सुबह उठते देखो
सुबह उसने लाली काजल न लगाया होगा, उसके असली रूप को देखो
सुबह सच्ची होती है, वो झूठा लाज शर्म नही करती
ढोंगी रात की तरह वो काला घूंघट ओडे नही मरती

Sunday, February 1, 2009

राम का भाई रहीम

राम और रहीम में क्या फर्क है
सिर्फ़ कुछ मात्राओं और लफ्जों ने किया बेडागर्क है
एक मुसलमान मस्जिद में हुंकार लगाता है
एक हिंदू मन्दिर में जयजयकार कर घर आता है
अरे दोनों तो फ़र्ज़ निभाते हैं, रहीम राम के घर रोज तो जाते हैं
फिर दोनों जंगली मुर्गों से लड़ते क्यों हैं ,
एक दूसरे की ओर तलवार ले बढ़ते क्यों हैं
कुरान, गीता में सर्वश्रेठ कौन?, ये कैसी लडाई है?
क्या दोनों धर्मग्रंथों ने मनुष्यता मिटाने की शिक्षा दिलाई है?
रोटी मुसलमान, भी खाता है, उसकी आँखों में भी आंसू आता है
हिंदू का रक्त भी लाल है, वो भी बच्चे को लोरी सुनाता है
क्यों ना किसी दिन हम मन्दिर मस्जिद से आगे सोचें
अपने मन के दुश्मन को क्यों न साथ साथ दबोचें नोचें
खुदा की कसम राम के घर ईद मनाई जाएगी
रहीम के घर से दीपावली पर, राम के घर मिठाई आयेगी
राम कुरान की आयतें सुनेगा, रहीम मीरा के भजन गायेगा
सतयुग सचमुच मेरे भारत में उस दिन ही आ जाएगा

मुर्खता का डब्बा

देखो देखो लोग अपना दिमाग बंद कर टीवी खोल रहे हैं
किसी दूसरे के विचार किसी दूसरे के तराजू में तोल रहे हैं
शाम ढलते ही बत्ती जला, दिमाग बुझा, मूर्खों का पिटारा खोल रहे हैं
किसने किसकी भगाई लुगाई की ख़बर, अपनी लुगाई से बोल रहे हैं
समाचारों से उपहास टपकता है, नेता जोकर से लगते हैं
नेताओं की छोडिये जनाब, प्रधानमन्त्री भी नौकर से लगते हैं
कितने मारे, मरे, घायल, बीमार हुए का रिवाज पुराना हुआ
मीडिया जगत अब पराई औरतों जैसी सनसनी खबरों का दीवाना हुआ
अगर ये सनसनीखेज है तो सोचिये असल सनसनीखेज क्या होगा
और यही निरंतर चला सब तो आने वाली नसल का क्या होगा
एक नेता की "बाईट" लेने ये कैमरा ताने कतार में खड़े हो जाते हैं
एक भूखे मरते किसान की ख़बर लेने ये हफ्ते बाद जाते हैं
महत्त्वपूर्ण क्या है? क्या ये हमें सिखलाएंगे, बतलायेंगे?
क्या हम ही दिमागी लल्लू पंजू हैं कि जो ये कहें मान जायेंगे?
शनि कौन सी करवट बैठेगा, आज काल सर्प योग किस को डसेगा
गर ये समाचार हैं, तो हमें ही एक दिन समाचार बना ये हमपर हंसेगा
मसालेदार सनसनी को सोच में न बसाओ, घटिया उपज आँगन न उगाओ
अमिताभ काटे बाल, नेता की जली खाल सी खबरें अपने घर ना घुसाओ
खबरें शनि, शाहरुख़, मंगल, कैटरीना से तंत्रों मंत्रों का सहारा नही लेती
वे तथ्य उजागर करतीं हैं, बंद कमरों से सनसनी को जनम नहीं देती
आज पिटारा खुलने के साथ साथ थोड़ा दिमाग भो खोलना
स्वयं समझ जाओगे कि ये उसका भोंकना है या बोलना

अर्धांगिनी रचना

रचनात्मकता कहीं से सीखी नही जाती
वो सहदेव सी माँ के पेट से ही सीखी सिखाई आती
जैसे एक नारी कुछ और सुंदर लगने को साज सज्जा करती है
ठीक वैसे ही रचनात्मकता भी श्रृंगार पसंद करती है
ये श्रृंगार कोई लाली, सिदूर या काजल का नही होता
न ही गहने चूडियों, नथ, पाजेब या बाली का होता
उसका श्रृंगार होते हैं वो व्यक्ति जो उसे निहारते हैं पुचकारते हैं
उसकी गहराइयों में जा उसको आवाज़ दे पुकारते हैं
रचनात्मकता एक शर्मीली नव्योवना सी होती है
उसको निहारो, उपहारों, बर्सावो चाँद की सैर करावो
वो स्वयं तुम्हारी हो तुम्हारे घर आ जायेगी
अपने को स्वयं समर्पित कर, तुम्हारी अर्धांगिनी बन जायेगी