Sunday, February 1, 2009

अर्धांगिनी रचना

रचनात्मकता कहीं से सीखी नही जाती
वो सहदेव सी माँ के पेट से ही सीखी सिखाई आती
जैसे एक नारी कुछ और सुंदर लगने को साज सज्जा करती है
ठीक वैसे ही रचनात्मकता भी श्रृंगार पसंद करती है
ये श्रृंगार कोई लाली, सिदूर या काजल का नही होता
न ही गहने चूडियों, नथ, पाजेब या बाली का होता
उसका श्रृंगार होते हैं वो व्यक्ति जो उसे निहारते हैं पुचकारते हैं
उसकी गहराइयों में जा उसको आवाज़ दे पुकारते हैं
रचनात्मकता एक शर्मीली नव्योवना सी होती है
उसको निहारो, उपहारों, बर्सावो चाँद की सैर करावो
वो स्वयं तुम्हारी हो तुम्हारे घर आ जायेगी
अपने को स्वयं समर्पित कर, तुम्हारी अर्धांगिनी बन जायेगी

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