Monday, February 2, 2009

सच्ची सुबह

सुबह सुबह जागो तो दुनिया असल रूप दिखाती है
दिन में तो वो घूंघट ओडी स्त्री सी अपना रूप छिपाती है
कभी दोड़ते दोड़ते अचानक थम जाओ, सबकी चाल देख पाओगे
किसकी कितनी गति और अवगति है, सब जान समझ जाओगे
दौड़ते समय जो आंखों से बच जाती हैं
थम कर देखने से वो बारीकियां साफ़ नज़र आती हैं
जमघट हो आसपास, तो अपना पराया दिखाई नही देता
विपदा के वक्त कहते हैं साया भी साथ नही देता
विख्यात हो प्रशंसा सभी पा जाते हैं,
उनके ऊटपटांग शब्द भी तब एक सिद्धांत बन जाते हैं
ठीक वैसे ही जैसे एक बिरले सेठ की बात सब ध्यान से सुनते हैं
वही बात उसका नौकर बोले तो नाक भों सिकोड़ भुन्ते हैं
पुराने कहते थे किसी लड़की से ब्याहना है तो उसे सुबह उठते देखो
सुबह उसने लाली काजल न लगाया होगा, उसके असली रूप को देखो
सुबह सच्ची होती है, वो झूठा लाज शर्म नही करती
ढोंगी रात की तरह वो काला घूंघट ओडे नही मरती

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