Monday, February 16, 2009

ध्वज

ख्यालों के कलेवे सपनो को जीमाता जाऊं
सपनों के निवाले खा आगे बढ जीता जाऊँ।
जीने की चाह को हीरे सा कठोर बनाऊं,
कठोर सी राहों में आशाओं का गलीचा बिछाऊं.
बिछे हुए सपनों को प्यार की नींद सुल्वाऊं,
नींदों में शहद घोल उनको मीठा कर जाऊँ.
कभी धूप पी लूँ तो कभी छाँव निगल जाऊँ।
जलते मन को बावली बावली जा बुझाऊं,
धमनियों का खून पसीना बन न पिघले।
सूखती साँसों पर आशा की गीली पट्टी लगाऊं,
शहर की कोलतारी सड़कों पर अपनी सपनो की छाप छोड़ जाऊं।
मन की लगाम खींच कभी इधर कभी उधर दौडाऊं,
प्याऊ बन हर प्यासे के खेत सींच फसल उगाऊं।
खोखले तन मैं आशाओं की रणभेरी बजवाऊं,
मन तन और प्रयत्न के युद्ध में, ख़ुद झंडा बन शत्रु के किले पर लहराऊं।

No comments: