Monday, February 2, 2009

झुग्गी झोपडियों में एक दिन

आज उन गली गलोंचों में मैने जीवन उगते देखा
उसको फलते फूलते, दोडते रुकते पकते देखा,
वे वो गलियाँ थीं जो कालोनी के घरों के चूल्हे जलाती हैं,
उनके घर कपड़े बर्तन फर्श मांझ धो, वापस अपनी गंदे में आ जाती हैं।
साफ़ सुथरी कालोनियों में कभी मैने होली इतनी उल्लास से मनते न देखि,
एक अजनबी भीड़ किसी और अजनबी के घर इतनी जमते न देखी।
वहाँ कूचे कूचे पर चौपाल थीं, जो हर इंसान को दूसरे से मिलाती थी,
शहर की कन्नी काटती भीड़ सी वो भागी न जाती थी।
वहां आंसू पीकर लोग प्यास बुझाते, नलकों में क्यूंकि पानी न था,
फिर भी काम पर जाते चूँकी उनका कोई सानी न था।
बच्चे धूल मिटटी में खेल रहे थे,
डॉक्टर वैज्ञानिकों के दावे गन्दी नालियों में उंडेल रहे थे।
किसी की नाक बह रही थी तो कोई पेंचा भिड़ा रहा था,
एक किसी साफ़ कालोनी वाले बच्चे को नाक चिढा रहा था।
औरतें पानी भरने के लिए एक दूसरे से लड़ भिड रही थी,
एक बूढी दादी किसी शराबी की गन्दी गालियों से चिड रही थी।
दोपहर तक सब ठीक ठाक सा हो गया,
वो शराबी भी गहरी नींद सो गया।
शाम को एक और नया आलम था,
कोई किसी का भाई तो कोई बालम था।
सब मिल बाँट खा रहे थे, दिन के दुखों को ताडी पी डूबा रहे थे।
दूर उस साफ़ कालोनी के मकान की किसी खिड़की पर खड़ा कोई रोता था,
उसके पास सब था, मगर कोई ना था।
उसके पास रोने का सिर्फ़ यही एक मौका था।

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