Wednesday, February 4, 2009

तब से अब

मुझे पता ही न चला पावों के नीचे से धरती कब खिसकी
मैं तो आसमां में पींगे लगा रहा था।
जब नीचे आया तो धरती न थी,
मैं तो पंख कटा वापस आ रहा था।
कभी कुछ कह तो दिया होता तुमने,
मैं तो कबसे ज़ुबां लड़ा रहा था।
तुमने कहा भी तब बड़ी मुश्किल से,
जब मेरी ज़ुबां पे ताला लगाया जा रहा था।
कोई सुनता न सुनता,
स्वयं अज्ञानी हो प्रवचन सुनाता जा रहा था।
संत मेरे घर कब आया, पता न चला,
मैं तो किसी और घर सेंध लगा रहा था।
सब कुछ थमा जमा था तब,
जब में दौड़ा चला जा रहा था।
जब सब दौडे, उनके पीछे ,
मैं भी दौड़ा चला जा रहा था।
प्यास भी थी और पानी भी,
मैं तो कटे हाथों को सहला रहा था।
अब प्यास है पर पानी नही,
मैं तो मुहं से लोटा उठा रहा था।
अब पानी था, पर प्यास न थी,
फ़िर क्यों वो गंगाजल पिला रहा था।
अब न पंख थे, न पांवों, न हाथ, न प्यास
मैं तो गंगा में बहा चला जा रहा था।
जीवन भर बहलाता रहा ,
अब अपने को बहा ला रहा था ।

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