Tuesday, February 3, 2009

कंप्यूटर से बाहर निकला दोस्त

चलो चलो आज अपने कंप्यूटर में बंद सब दोस्तों को धौल जमाते हैं,
उनके चिप, मदरबोर्ड, तारों,से जकडे शरीर को आजाद कराते हैं।
बहुत हुआ हाय, हेल्लो, टेक केयर, सीयू,
उनसे उनके ही घर बिना बताये मिलने जाते हैं।
अरे काम का क्या है, ये तो कभी न रुकने वाला पहिया है,
ये ना किसी की बीवी, महबूबा, भैया या फिर मैया है।
कहीं से भी किसी भी वक्त ये बिच्छूघास सा उग आता है,
कभी गुर्राता, कभी डराता, कभी धौंस जमा धमकाता है।
बेशरम कहीं का, जब देखो मुंह उठाये हमारे ऑफिस घर घुस जाता है,
इसकी बेशर्मी तो देखो, बार बार भगाने पर भी ढीठ सा बत्तीसी दिखाता है.
यारों आज साले #*%$#$@%#$# को अडंगी दे गिरा ही देते हैं,
इसके मुंह में पूरी व्हिस्की की बोतल जबरदस्ती उन्डल्वा ही देते हैं।
कुछ दिन ये अपना बदकिस्मत चेहरा दिखा न पायेगा,
बेशरम तो है ही ये, नशा उतरते ही देर सबेर वापस आ ही जाएगा।
यारों तब तक तो गले मिल कुछ बातें कर ही जाते हैं,
बहुत दिन बीत गए, आओ चलो आज उसी मोटू के घर जाते हैं।
साला अब तो वो और मोटा हो गया होगा,
उसका पायजामा कुछ और छोटा हो गया होगा।
छोटी छोटी डेडलाईनें धीरे धीरे अपनी आप लम्बी हो जाएँगी,
कुछ जाम पिला देंगे उन्हे, साली वो भी टल्ली हो जाएँगी।
डेडलाइन का काम कभी न रुकता है,
हर डेडलाइन, काम बढ़ाने का ही एक घटिया नुस्खा है।
चलो आज कंप्यूटर से निकल हम असल दुनिया में मिलते हैं,
चलते हैं वहां, जहाँ कुदरत के असली फूल खिलते हैं।
वादा करते हैं, घर एक दूसरे के हर पर्व पर जायेंगे,
देसी हैं हम देसी ही रहेंगे, विलायती जामा पहन भी भांगडा पायेंगे।
दीवाली दशहरे, होली साथ साथ मनाएंगे,
दोस्त हैं हम, भला अपनों के नही, तो किसके पास जायेंगे?

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