Saturday, January 31, 2009

मेरे ग़मों के हुक्के

मेरे दुखों को मुझसे इतना लगाव हुआ
की वो मेरे घर चटाई बिछा कर बैठ गए
शतरंज की बिसात बिछाते, अपने हुक्के मेरे ही घर गुडगुडाते
कमबख्त उन्हे जलाने को कच्चा कोयला भी मुझसे ही मंगवाते
मेरी बनाई हुई तस्वीरों की जगह अपने शैतान की तस्वीर तंग्वाते
उनकी मेहमान नवाजी कर एक दिन मैं तंग आ गया
अपने माथे की सिलवटें देख मैं रंग दे बसंती गा गया
बस फिर क्या था, ज़ंग- ऐ- बदर हो गई
उनके और मेरे बीच में गुथाम्गुथी शुरू हो गई
न जाने किसने मुझे चरणामृत पिला दिया
मैने उन सबको धोबीपाट दे दे गिरा दिया
दुम दबा सरपट भागे वो, में पीछे पीछे और आगे आगे वो
उनके भागने से उड़ती धूल जब ओझल हो गई
मेरे पावों की चाल भी जब भोझिल हो गई
मैं लौट आया अपनी चौबारे में
सन्नाटा छाया था मेरे गलियारे में
कमबख्त वो यहाँ थे तो रौनक बहार तो थी
चाहे मुर्दों की थी पर सरकार तो थी
मैं फिर चल पड़ा उन्हे घर वापस लाने को
ढूडने निकल पड़ा मुसीबत को घर लाने के कोई बहाने को
लगता है मेरा दोस्ताना सा हो गया है इन मुह्जलों से
चलो अब की बार कुछ ज्यादा न बिगाड़ पायेंगे
कमबख्त इस बार अपनी हुक्कों में कोयला मुझसे तो न डलवायेंगे

No comments: