Monday, June 13, 2011

तब और अब

तब किसी लिफ्ट पर नहीं बल्कि किसी पेड़ पर चढ़ा जाता था
किसी दोस्त के ही नहीं बल्कि किसी अजनबी को भी गुलाल मला जाता था
प्यास किसी नलके का चुल्लू में पानी पीकर ही बुझती थी
पडोसी के घर लीची और अपने आँगन में अम्बियाँ उगती थी
मां और पिताजी मोबाइल से नहीं, खिड़की से आवाज़ दे बुलाते थे
सुबह के बाहर खेलने गए बच्चे अपने आप शाम ढले घर आ जाते थे
ना टी वी था, ना मोबाईल, कुछ था तो वो था ढेर सारा वक़्त
स्माइली की बजाये मुस्कान या आंसुओं से होती थी भावनाएं व्यक्त
तब पिज्जा और बर्गर ना थे पर बंद समोसे से दिन काट लेते थे
दोस्तों के साथ चूरन, गट्टा और बुढिया के बाल बाँट लेते थे
दोस्त फ़ोन करके बता कर नहीं बल्कि जबरदस्ती घर आ धमकते थे
चेहरे मुल्तानी मिटटी लगा धोने के बाद चाँद माफिक चमकते थे
५० पैसे हर घंटे की किराये की साइकल ले नदी में नहाने जाया जाता था
तब मोटर गाड़ियां कम थी इसलिए जिस्मों को चलाया जाता था
कीचड मिटटी में सने हुए हाथ और पैर रहते थे पर बीमार ना बच्चे होते थे
बिस्तर में गिरते ही नींद आती थी तब लोग नींद की गोलियां खाकर ना सोते थे
तब इश्क दिल से और पढाई दिमाग से की जाती थी
गूगल, फेसबुक में जवाब और मेह्बूबायें ना ढूँढी जाती थी
आज सब कुछ तो है पर वक़्त की कमी पड़ गई है
मोबाईल है हाथ में पर इंसान से दूरियां बढ़ गयीं हैं
लज़ीज़ खाना है सामने पर हाजमा कमज़ोर पड़ चला है
देखो आज का इन्सां कितना आगे बढ़ चला है

No comments: