Saturday, January 31, 2009

इंसान का गीदड़

चने की झाड़ पर बैठ एक दिन गीदड़ ने धौंस जमाई
"मैं जंगल का राजा हूँ अब मैने इंसान सी अकल पाई"
किसी सयाने हाथी नें चिंघाड़ के झाड़ हिलाई
कददू सा टपका गीदढ़ धरती पर उसने अपनी टांग गंवाई
बन्दर बोला तू सयाना है तो टांग क्यूँ अपनी तुड़वाई
गीदढ़ हाय हाय कर बोला कल ही मैने एक इंसान के घर झोपडी बनाई
उसने मुझे चाँद तारों के सपने दिखलाये
एक दूसरे को मारने के हजारों गुर सिखाये
वो कहता था धरती पर राज करूँगा
जीतूँगा या सब को साथ ले मरूँगा
वो मुझे अपने कल कारखाने दिखाने साथ ले गया
क्या क्या उसकी मशीने करती हैं ये सब बताने ले गया
मैने उसकी बंदूकें तोपें देखी, हवा में उड़ने वाली मौतें देखी
जंगल की सुस्त जिंदगी से अलग, चीज़ें झटपट होते देखीं
वो लाँघ रहा था समंदर को, वो खोद रहा था पहाड़
वो कुदरत की बनाई तस्वीर पर जेहरीली स्याही से कर रहा था छेड़छाड़
उसने मुझको सोना चांदी दिया कुछ मंत्र दिए, कुछ तंत्र दिए
उसने मेरी झोली में अजीबोगरीब से कुछ कुछ यन्त्र दिए
वो बोला चल मिलबांट कर सबकुछ खाते हैं
जंगल का राजा बनाकर तुझे, हम सबको चट कर जाते हैं
बस यही सोच मैं यहाँ आज एलान करने आया था
मुझे क्या पता था, अपनी टांग गंवाने आया था
सयाने हाथी ने ये सुन अट्टहास ज़ोर से लगाया
सारे जानवर हंस पडे, और महाराज शेर की जय हो का नारा लगाया
शेर बोला तू गीदढ़ है गीदढ़ ही रह क्यों इंसान सा अपने को बनाता है
तू उसके पास सीखने गया जो कभी कभी हमसे सीखने आता है?

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