Tuesday, February 3, 2009

प्रिय मित्रों

कल मैने दो कवितांए लिखि जो एक दूसरे से बहुत जुड़ी हैं। उन्हे लिखते समय मेरा स्वयं का मन भारी हो गया था और मैं सोच रहा था की इनको मैं लिखूं न लिखूं। मैं नकारात्मक सोच में विश्वास नहीं रखता और यही कोशिश करता हूँ की कुछ प्रेरणादायी ही लिखूं। हम सब लगभग एक जैसे से ही हैं, फर्क सिर्फ़ इतना है की हम अपनी ही बनाई इंद्रजाल सी दुनिया में व्यस्त रहते हैं और वास्तविकता की ओर काला चश्मा पहने देखते हैं। यथार्थ तो यथार्थ ही रहेगा, उसे मैं या आप कोई भी नही बदल सकता। मेरा हमेशा ये प्रयत्न रहेगा की मैं कुछ ऐसा लिखूं जो आपके मन को सोचने पर विवश करे और आपके होठो पर मुस्कान आ जाए। परन्तु कभी कभी कुछ ऐसा मेरा लिखा हुआ पढो जिससे आप दुखी हो जायें तो मुझे क्षमा कर दीजियेगा। यकीन मानिये मुझे आपके जीवन में दुःख घोलने का कोई हक़ भी नही और ना ही मेरी ऐसी कोई इच्छा है। पहली कविता पढ़ने से पहले कृपया पहले "झुग्गी झोपडियों में एक दिन" अवश्य पढ़ें, उसको पढ़ने के बाद "साफ़ कालोनी का एक घर" और सबसे आखिर में "कंप्यूटर से निकला दोस्त" क्यूंकि ये तीनों कवितायें एक दूसरे से जुड़ी हैं। कुछ में, जो हो रहा है वो व्यक्त है, और आखिरी में वो जो हमें करना चाहिए. आपकी प्रतिक्रियाओं की प्रतीक्षा मुझे रहेगी। कृपया दिल खोल कर लिखें।

3 comments:

के सी said...

जब इतना कुछ संझते है तो फ़िर जरूर लिखते रहिये, हमें भी आनंद मिलेगा।

Paddy Deol said...

अवश्य. आपने मेरी रचना सराही.आपका बहुत बहुत धन्यवाद.

Anonymous said...

wah ..mere dost..kya dil ke taar chhed diye...sachai to yehi hai..aur hum is se baagte rehte hai


arun